किसान की मौत का मर्सिया

अप्रैल 29, 2007 at 9:42 पूर्वाह्न (विवक्षा)

 

आज की तीन खबरें ऐसी है जिनपर बिना कहे और लिखे रहा नहीं जा सकता I

पहली खबर यह कि उरई जिले में एक किसान ने आत्महत्या कर ली क्योंकि उसकी फ़सल खराब हो गई थी और उस पर सूखा और फ़िर ओलावृष्टि ने काम तबाह कर दियाI इस दौर में जब शेअर मार्केट के उतार चढ़ाव और शिल्पा शेट्टी के चुम्बन समाचारों की सुर्खियों में छाए रहते हैं किसानों की आत्महत्या और दिनोंदिन बिगड़ती जाती ग्रामीण अर्थव्यवस्था की सुध लेने में किसी की दिलचस्पी नहीं हैI कितनी अज़ीब बात है कि अगर वोट बैंक की नज़र से देखें तो भी किसान किसी जाति या धर्म विशेष से अधिक ही हैसियत रखते हैंI मगर उनकी समस्याओं की तरफ़ किसी की तवज़्ज़ो नहीं हैI कहीं यह इसलिए तो नहीं कि किसान संगठन का अभाव है या फ़िर वे बड़े औद्योगिक घरानों की तरह राजनीतिकों को आर्थिक सहायता नहीं करते/ दर-असल छोटे और मध्यम किसानों की सम्स्याएं न तो समझी जा रही हैं न ही उन पर कोई कारगर उपाय किए जा रहे हैंI

ज्ञानेन्द्रपति अपनी एक कविता में कुछ ऐसे ही विचार व्यक्त करते प्रतीत होते हैं जब वे देसी बीजों की तुलना मोन्सेन्टो के संकर बीज़ों के साथ करते हैं I कृषि लगातार पिछड़ रही है मगर उस पर सरकारें कोई योजना कोई आयोग तक बनाने की ज़हमत नहीं कर रहीं I सा क्यों?  स्वयम्भू कृषक नेता शरद पवार जैसे लोग क्रिकेट के खेल में व्यस्त हैं उड्डयन मन्त्री प्रफ़ुल्ल पटेल के इलाके विदर्भ में आत्महत्याएं हो रही हैंI मेरा मानना है कि किसान की आत्महत्या कोई खबर नहीं है न ही चिन्ता की बात….मुद्दा ये है कि उन परिस्थितिजन्य जड़ता को तोड़ने के लिए क्या किया जा रहा है जिसका प्रतिफ़ल इन आत्महत्याओं में नज़र आता हैI

ऐसा नहीं है कि किसान आन्दोलन हुए नहीं इस देश मेंI आज़ादी के पहले ही स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने किसानों को एकजुट करके आन्दोलन खड़ा किया थाI बंगाल का तेभागा आन्दोलन (१९५० के दशक में) भी किसान आन्दोलन ही था. और पीछे जाएं तो नील की खेती करने वाले किसानों का संगठन महात्मा गाँधी के आन्दोलन की नींव बना थाI

स्वातन्त्र्योत्तर भारत में किसानों की समस्याओं पर जितना ध्यान दिया जान था उतना न दिया गया न ही दिया जा रहा है. हो सकता है खेती आज GDP में, सेवा और उद्योग क्षेत्र के मुक़ाबले कम योगदान कर रही हो मगर क्या इस सत्य को नकारा जा सकता है कि देश के ग्रामीण इलाकों की बहुसंख्य आबादी अब भी कृषि पर निर्भर है अपने दैनिक जीवन यापन के लिए.. अब भी काफ़ी सारा इलाका चूंकि एकफ़सली है और उस पर भी मानसून की मेहरबानी पर निर्भर तो वर्ष का तकरीबन २ तिहा भाग किसान या तो मज़दूरी करता है या फ़िर जैसे तैसे काम चलाता हैI इन परिस्थितियों को बदलने के लिए कोई तैयार नहीं.

१९८० के दशक में महेन्द्रसिंह टिकैत ने किसानों का आन्दोलन को गति दी मगर अब उनका भी ऐसा मानना है कि वैसा आन्दोलन खड़ा करना मुश्किल है क्यों कि किसान अपनी खेतीबाड़ी देखे या रोज़ रोज़ आन्दोलन का झंडा बुलन्द करेI

ऊपर जिस घटना का उल्लेख मैंने किया वह बुन्देलखन्ड के इलाके से ताल्लुक रखती है एक तो वैसे भी बुन्देलन्ड का इलाका खनिज सन्साधन विहीन काफ़ी हद तक गैर-उपजाउ इलाका है उस पर कृषि ही यहां का मुख्य आय स्रोत है I इन परिस्थतियो में अपराध र दस्यु समस्या जन्म नहीं लेगी तो क्या भक्ति आन्दोलन की धारा बहेगी?

किसान के लिए कुछ करने का अर्थ उसको सब्सिडी की भीख देना नहीं हैI वे परिस्थितयाँ बदलिए जिन्होंने आज इस मुकाम पर हिन्दुस्तान के किसान को ला खड़ा किया हैI क्या कभी इस बात पर गम्भीरता और सहानुभूति से विचार किया गया कि बड़ी बीज कम्पनियां आ जाने के बाद छोटे किसानों का क्या होगा जिसे हर फ़सल के पहले बीज खरीदना होगा जो अब तक वह परम्परागत रूप से संग्रहण करते आ रहा थाI

दुख की बात यह है कि किसान का दर्द तो छोडिए किसान की समस्याएँ और किसान का नाम भी संचार माध्यमों में कहीं नहीं है/ क्या यह एक संयोग मात्र है कि टेलिविजन या फ़िल्मों में किसान बिल्कुल गायब है/ उसकी कहानी न दिखाई जा रही है न ही लिखी जा रही है / जो थोड़ा बहु किसानपन है वो पंजाब के किसान की फ़ोटो. और बड़े आलीशान रेस्तराँ में मक्के की रोटी/ मगर क्या वह किसान हमारे आस-पास के किसान से मिलता जुलता मालूम पड़ता है? कम से कम मुझे तो नहींI

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दलितों में महादलित

अप्रैल 29, 2007 at 9:39 पूर्वाह्न (राजनीति के अखाड़े से)

जब जब सामाजिक प्रयोग करने की बात आती है समाजवादी नेताओं के नाम ख्याल में आते है/ कभी कभी भाजपाई भी याद आते हैं जिन्होंने और बड़े पैमाने पर सामाजिक प्रयोग किये हैं/ मगर दोनों की प्रयोगशालाएं अलग अलग हैं

शुरू में सबका साझा था क्योंकि बड़े सेठ लोग अपनी दुकान लोकतन्त्र के मार्केट में चलाना तो दूर लगाने ही नहीं दे रहे थे/ एक प्रयोग सन १९६७ में हुआ था संविद सरकारें बना कर (संयुक्त विधायक दल) फ़िर तमाम सारे प्रयोग दोनों दलों के वैज्ञानिकों ने किये/ बाद में नित नए प्रयोगों के चलते एक दूसरे की प्रयोगशालाओं में कोई रेडिएशन न फ़ैल जाए (या फ़ार्मूला कोई दूसरा न चुरा ले) इस वजह से दोनों पक्षों के वैज्ञानिकों ने आपस में मिल बैठ के तय किया कि अपन प्रयोगशालाएं अलग अलग कर लेते हैं हमारे तरफ़ के प्रयोगशाला से जो प्रोक्ट निकलेगा उसपे तुम नज़र मत दालना और ऐसा ही हम तुम्हारे लिये करेंगे/ 

बहरहाल भाजपाइयों की प्रयोगशाला बनी गुजरात और समाजवादियों ने उ.प्र. और बिहार में धमाचौकड़ी का कार्यक्रम शुरू किया/ बीच में यू.पी. में भी कुछ टाइम तक भाजपाइयों ने कोशिश कि मगर ज्यादा सफ़लता हाथ आई नहीं/ बाद में तय यह हुआ कि अपन रासायनिक तत्वों में हिस्सा बाँट कर लेते हैं जातिगत समीकरणों पर समाजवादी वैज्ञानिक काम करेंगे और धार्मिक तत्व वाले फ़ार्मूला पर भाजपाई/

इस बाँट बखेड़े में बेचारी कांग्रेस रह गई// उसके साथ समस्या यही है कि या तो उसके नेता दिवंगत हो चुके हैं या फ़िर अभी दूधपीते बच्चे हैं

जिस तरह से केमिकल लैब्स में एक तत्व को दूसरे से मिलाके अलग अलग कोम्बिनेशन बना के कुछ खोज परख की जाती है वैसे ही इन राजनीतिक प्रयोगशालाओ मे चलता है/

लालू जी ने माई (MY) समीकरण से खूब दिन सत्ता सुन्दरी का मन मोहे रखा तभी एक न्जिनीअर साब के हाथ कोई सिद्ध फ़ार्मूला लगा और उससे उन्होंने सत्ता की चाबी बना ली /

फ़िर कुछ दिन बाद एक नए रासायनिक तत्व की खोज हुई. बताया गया कि ये तत्व पृथ्वी पर मौज़ूद तो काफ़ी पहले से था मगर इसकी खोज अभी हुई है सो इस पर हमारा अधिकार बनता है इस तत्व का नाम है “अति पिछड़ा”/ इस अति पिछड़े की बात उठाई गई ताकि अगर कोई नई राजनीतिक दवा ईज़ाद हो तो उसका सबसे पहला उपयोग ये ययाति लोग करें/

अभी मुहल्ले में एक नई बहस है महादलित …मै तो सोचता था कि जार्गन्स (शब्द जाल) का निर्माण सिर्फ़ एन जी ओ वाले या कॊफ़ीरूम बुद्धिजीवी करते हैं मगर राजनेता भी इस मामले में आगे हैं.

हुआ कुछ यूँ कि दलितों में जो अति दलित हैं उनकी पहचान के लिए एक आयोग बनेगा.. प्रदेश का अन्दाज़ा तो लग ही गया होगा आपको/ नहीं लगा? धत्तेरे की इतना बड़ा विस्तार प्रसंग लिखने का क्या फ़ायदा? बिहार के अलावा यह योग्यता कहाँ के वैज्ञानिकों में है/ बिहार में यह बनेगा… अब महादलित आयोग बनेगा इसकी रिपोर्ट आनेपर बिहार में जादू की छड़ी घूमने वाली है..जिस के घूमते ही दलितों की सारी समस्याएं छूमन्तर हो जाएंगी…..उस छड़ी को बनाने के लिए कॉन्ट्रेक्ट किसको दिया जाए इसपे मोदी जी और नितीश जी के बीच सहमति नहीं बन पाइ है/

इसके बाद एक फ़ायदा ये भी हो सकता है कि महादलित नामका नया मिश्रण किसी बुढ़ातेराजनेता के लिए संजीवनी साबित हो जाए या फ़िर उसकी पूरी पार्टी वाले उस पर मौज करें/ हालँकि अन्तिम रिपोर्ट आने तक इस बारे में कुछ नही कहा जा सकता/

दलितों के नाम पर राजनेताओं की पूरी की पूरी पीढ़ियाँ मौज कर के चल दीं  और दलित आज भी ओख से पानी पीता है और घोड़ी पर चढ़े तो जूते खाने का भागी बनता है/ चलो देखते हैं ये महादलित में बाँटने की लीला भी देखते हैं/

 

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महान कवि भूषण

अप्रैल 26, 2007 at 8:44 पूर्वाह्न (पुनर्पठन)

पुनर्पठन के तहत आज याद करते हैं हम रीतिकाल के महान कवि भूषण को जिनके बारे में प्रसिद्ध है कि उनकी पालकी उठाते वक़्त शिवाजी और छत्रसाल ने भी काँधा लगा दिया था/

इनका समय रहा है सत्रहवीं सदी जब सारे मुल्क के राजा नवाब और सामन्त अय्याशियों में मदमस्त हुए पड़े थे/रीतिकाल में जब सारा मुल्क़ का साहित्य संसार श्रृंगार रस में गोते लगा रहा था उसी वक़्त एक शायर ऐसा भी हुआ जिसने राजे-रजवाड़ों को उनका धर्म और कर्तव्य की याद दिलाई/

स्वाभाविक है कि यह याद दिलाना बहुत कम लोगों को ही पसन्द आया और इसी के चलते भूषण अपने मूल स्थान जो शायद दक्षिण उत्तरप्रदेश में कहीं था वहाँ से महाराष्ट्र चले आए/ यहाँ शाह शिवाजी की कीर्तिगीत रचने के साथ ही उन्होंने कभी उनको कर्तव्य की याद दिलाने में कोताही भी नहीं बरती/

भूषण के छप्पय और छन्द वीर रस से भरे हुए हैं/ उन्होंने तत्कालीन माहौल और साहित्यिक परिस्थितियों के विपरीत श्रृंगार रस का वर्णन कम ही किया है/ उनकी कविताओं में तलवार की चमक और बन्दूक की धमक है पायल की छनक नहीं/भूषण कुछ समय वीर बुन्देला छत्रसाल के दरबार में भी रहे थे और छत्रसाल की प्रशन्सा में भी उन्होने काव्य रचना की थीं/

प्रस्तुत हैं कुछ रचनाएंस्मृति पर आधारित होने की वजह से कहीं कोई त्रुटि भी हो सकती है, कृपया ध्यान दिलाने का कष्ट करें/

“इन्द्र जिमि जम्भ पर, बाड़व सुअम्भ पर, रावण सदम्भ पर रघुकुल राज है

पौन वारिवाह पर, शम्भु रतिनाह पर, ज्यों सहस्त्रबाहु पर राम द्विजराज है

दावा द्रुम दण्ड पर, गरुड़ वितुण्ड पर, मृगन के झुण्ड पर जैसे मृगराज है

कान्ह जिमि कन्स पर, तेज तम अन्स पर, त्यों मलेच्छ वन्स पर सेर सिवराज है”

मायने इस रचना के कुछ इस तरह हैं कि जैसे इन्द्र वृत्रासुर नामक राक्षस के लिए, समुद्र के लिए बाड़व अग्नि, दम्भी रावण पर राम, बादलों पर पवन, शंकर कामदेव पर, सहस्रबाहु नामके राजा पर महर्षि परशुराम, जंगल की आग वृक्षों पर, पक्षियों पर गरुड़, पशुसमूह पर शेर, कंस पर कृष्ण और अँधेरे पर रोशनी भारी होती है वैसे ही म्लेच्छ (औरंगज़ेब) के लिए शेर शिवाजी भारी हैं/

छ्न्द की दृष्टि से इस में मालोपमा अलंकार का प्रयोग है/ यानि की कई सारी तुलनाएं एक व्यक्ति के लिए की जाना/ 

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तीस बरस का त्रुटिसुधार

अप्रैल 26, 2007 at 4:40 पूर्वाह्न (राजनीति के अखाड़े से)

सोचा तो ये था कि राजनीत के बवाल में पड़ेंगे कम से कम, मगर क्या करें अपने लोग इतना मैटर दे देते हैं कि बिना उन पर टिप्पणी करे मुझे अच्छी नींद आती ही नहीं/ उन लोगों को भी जब तक वो चर्चा में नहीं आते रहें नींद का आना, खाना का पचना मुश्किल होता होगा/ कुछ लोगों को तो शायद दैनिक कार्यक्रमों में भी शायद दिक्कत होती हो/  चरम अवस्था पर टहल रहे कुछ नेताओं को शायद साँस लेने में भी परेशानी महसूस होती हो अगर उनके कुछ बयान अखबारों के कागज़ को गन्दा कर के हमारा मनोरन्जन न करें/

चिर-विदूषक लालू जी एक ऐसे ही सज्जन हैं हमारे पड़ोस बिहार के रहने वाले है/ दिल्ली में रेल मन्त्रालय में बैठ के गरीब रथ की योजनाओं को अन्जाम देते रहते हैं वैसे आजकल उनका ज़्यादा समय मैनेजमेन्ट विद्यार्थियों को रेल प्रबन्धन के गुर बताने में जाता है/

अभी उनकी कुछ करीबी दोस्ती कांग्रेस से हो गई है/ और इसी झोंक में लालूजी ने बयान दे दिया कि “आपातकाल लागू करना तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए अनिवार्य था”/ इस बयान के बाद सारे कांग्रेसियों को विशेषकर परिवार के पुरानो खिदमतगारों को तत्काल सचेत हो जाना चाहिए/ हो सकता है लालूजी मैडम के दरबार में उनके खड़े होने की जगह पर निगाह गड़ा रहे हों/ लालूजी ने इतना कहकर ही दम नहीं लिया बल्कि वे समाजवादियों और जनता परिवार के पितृ-पुरुष जयप्रकाश नारायण को भी अपना अनुयायी बताने से नहीं चूके/ उनके अनुसार उन्होंने छात्र आन्दोलन शुरू करने के बाद जे.पी. को हैण्डओवर कर दिया था/ बहरहाल मुद्दे की बात ये है कि अब अर्जुनसिंह और गुलाम नबी आज़ाद जैसे पारिवारिक वफ़ादारों का क्या होगा? ये श्रीमान जी तो यहां भी घुसपैठ करने लगे/

लालू जी ने राहुल बाबा के बयानों को भी तर्कसंगत ठहराया/ वैसे भी हमारे यहाँ इतिहास के पुनर्लेखन की, पुनर्व्याख्या की परम्परा पिछली सरकारें शुरू कर गई हैं (इसी दौरान यह भी कि “क्या कभी इस बात पर गौर किया है कि हमें कभी भी पाठ्यपुस्तकों के माध्यम से इमर्जेन्सी के बारे में जानकारी नहीं दी गई और न ही उस पर कभी चर्चा हुई”)/

लालू जी जिस जनता पार्टी और जे.पी. के अनुयायी होने का दावा तमाम बरसों से कर रहे हैं उसी जे.पी. और उसके आन्दोलन को उन्होंने बेमानी ठहरा दिया/ यह एक विवाद और बहस का विषय है कि क्या इमर्जेन्सी की वाकई हिन्दुस्तान को ज़रूरत थी या यह सिर्फ़ कुछ सिरफ़िरे लोगों की करतूत थी जिनके आगे तत्कालीन प्रधानमन्त्री इतनी बेबस थीं कि उन्होंने आपात्काल लागू करने के पहले गृहमन्त्री तक से सलाह करना या बताना उचित नहीं समझा/ वैसे लालूजी की धर्मनिरपेक्ष दलों से खूब पटती है और देश का सबसे बड़ा धर्मनिरपेक्ष दल काँग्रेस ही है वैसे इसका ठेका कभी कभी कम्युनिस्ट पार्टियों को भी मिल जाता है/

बहरहाल नए समीकरण बनने का दौर है वैसे समीकरण और केमिस्ट्री तो काफ़ी दिन से बन रहे हैं आज फ़ार्मूला घोषित हुआ है और वो ये है कि “न तू कह मेरी न मैं कहूं तेरी” वैसे इस रासायनिक समीकरण से जो सबसे ज़्यादा नुकसान में रहने वाला है वो है हमारे प्रधानमन्त्री जिनको लालूजी वैसे भी भाव नहीं देते, अब तो शायद सरदार साहब को लालू –आवास पर जाना पड़ेगा/

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चुनावक्षेत्रे- कुरुक्षेत्रे

अप्रैल 26, 2007 at 4:36 पूर्वाह्न (राजनीति के अखाड़े से)

आज अटल जी लखनऊ आए थे, उ.प्र. के चुनावों के परिप्रेक्ष्य में उनका ये पहला उ.प्र. प्रवास था/ राजनीतिक अभिरुचियां होने के चलते मैं नेताओं को देखने सुनने चला जात हूं फ़िर अटल जी को कभी देखा नहीं था इससे भी ज़्यादा ये आशंका थी कि फ़िर पता नहीं कब मौका मिलेगा? मिलेगा भी कि नहीं. तो मैं उन्हें देखने सुनने के लिए सभा में पहुंच गया/

सभा जैसा कि प्रायः होता है काफ़ी देर से शुरू हुई/ तमाम सारे छुटभैये नेता हमारे कानों पर अत्याचार करते रहे और हम अटल जी के चक्कर में उन्हें सुनते रहे/ तब हमें बिल्कुल समझ में आ गया कि कैसे जनता भाजपा के शासन को बर्दाश्त करके अटल जी के नाम पर वोट दे देती है/ इसी दरमियान एक सज्जन बोले कि लखनऊ के सारे बड़े बड़े नेता तो चले गए बसपा सपा में इसलिए इनको बोलने का मौका मिल रहा है/ शायद यह वर्तमान परिदॄश्य पर सटीक टिप्पणी थी/

अटल जी के साथ राजनाथ सिंह और कल्याणसिंह भी थे और स्थानीय उम्मीदवार लालजी टंडन (मायावती के राखीबन्द भाई और अटल जी के खासमखास) भी थे/जनता और कम से कम मैं तो अटल जी को सुनने का ही इन्तज़ार कर रहा था. जैसा की होता तमाम स्तुतिगान पहले हो चुके थे और फ़िर कल्याणसिंह ने अपना भाषण दिया/ उनका कहना था कि”मैने सत्ता की चादर को ज्यों की त्यों धर दिया और मुझ पर कभी कोई आरोप तक भ्रष्टाचार का नहीं लग सका” शायद वे कुसुम राय का प्रकरण भूळ गये हैं जिस पर उनकी काफ़ी छीछालेदर हुई थी और शायद वे बसपा के विधायकों को तोड़ कर अपराधियों से भरा हुआ जम्बो मन्त्रिमण्डल बनाने का रिकार्ड भी भूल गए थे/ बहरहाल उनका उद्‌बोधन में एक ही चीज़ उभरी कि “हम भ्रष्टाचार मुक्त अपराध मुक्त शासन देंगे”/ शायद ऐसे शासन की उ.प्र. ही नहीं सारे हिन्दुस्तान को ज़रूरत है मगर विडंबना यही है कि नेताओं को अपने ही भाषण भूलने की बीमारी लगी हुई है/

उनके बाद राजनाथसिंह ने अपने वक्तव्य में कहा कि “उ.प्र. में जेल का खेल चल रहा है” राजनाथ का भाषण कुछ अच्छॆ बिन्दु लिये हुए था और उन्होने मज़बूती से अपनी बात रखी/

इसके बाद भाषण हुआ माननीय अटल जी का/यह भाषण उनके वयाधिक्य और स्मृतिविभ्रम का परिचायक सिद्ध हुआ/ शुरू होते ही एक बुजुर्गवार बोले कि “बेटा जब तक ये बुड्ढा है तब तक ही भाजपा है” बहरहाल यह भविष्य के गर्भ में है मगर जिन लोगों को उन की दहाड़ संसद में सुनने का मौका मिला है और जिन्होने उनके विद्वत्ता, वाग्वैदग्ध्य, वाग्मिता और वाक्पटुता से भरे हुए भाषण सुने हैं उनके लिए यह निराशाजनक था/ अटल जी खड़े तो हो नहीं पाते है और यह स्थिति उनकी भाजपा के भीतर भी है अब वे सिर्फ़ आराम करते हैं/

अटल जी ने कहा ”मेरा कल्याणसिंह जी से कोई मतभेद नहीं है” हालाँकि बात पक्की है कि अटल जी अपने राजनीतिक दुश्मनों को बख्शते नहीं हैं चाहे वे पं. मौलिचन्द्र शर्मा और बलराज मधोक (जनसंघ) या फ़िर गोविन्दाचार्य/ फ़िर कल्याणसिंह को वे कैसे माफ़ कर सकते है जिन्होंने भाजपा छोड़ते वक्त अटल जी को तमाम गालियाँ दी थीं/उनको भाषण के दौरान पूरा समय प्रोम्पटिंग की जाती रही तब कहीं जाके वे अपना लगभग १५ मिनिट का भाषण पूरा दे सके/ निश्चित रूप से उनकी उम्र में ऐसे हालात पैदा होना कोई अचरज वाली बात नहीं है/

एक ज़माना था जब उनकी सभाओं में नारा लगता था ”अटलबिहारी बोल रहा है, इन्द्रा शासन डोल रहा है” मगर अब वो बात रह नहीं गई है/ यह वह व्यक्ति है जिसने अपनी क्षिप्र वाग्मिता के बल पर प्रधानमन्त्रित्व तक का सफ़र तय किया/

अटल जी को पूरा समय बार बार निर्देशित किया जाता रहा/ जिस व्यक्ति की भाषण कला हज़ारों-लाखों लोगों के लिये प्रेरक रही हो उसका भाषण के दौरान विषय से भटकाव होता रहा/ भाषा के जबर्दस्त ज्ञाता अधूरे वाक्य और अनुपयुक्त शब्दों का इस्तेमाल करता रहा/ निश्चित रूप से उन्हें सुनना बहुत सुखद नहीं था/ सन १९९८ के चुनावों का वाकिया है अटल जी से सोनिया जी के चुनाव प्रचार में उमड़ रही भीड़ के बावत पूछा गया/ अटल जी बोले “जनता उन्हें देखने आती है मुझे सुनने के लिये आती है” मगर आज वही स्थिति अटल जी की हो गई है/ वय, स्वास्थ्य और अन्य समस्याओं के चलते ही सही हिन्दुस्तान की राजनीति का यह धुरन्धर खिलाड़ी और महारथी आज शरशय्या पर प्रतीत हुआ/

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राहुल बाबा-की सामन्ती सोच

अप्रैल 22, 2007 at 1:43 अपराह्न (राजनीति के अखाड़े से)

कुछ लोग धरती पर जन्म नहीं लेते, बल्कि अवतरित होते हैं/ और कभी कभी भगवान अवतारों की झड़ी लगा देता है/ वैसे भी पुन्य भूमि अजनाभवर्ष भारत के लिये प्रसिद्ध है कि यहां देवता भी जन्म लेने के लिये लालायित रहते हैं, शायद भगवान को भी जन्म लेने के लिये कुछ जुगाड़ भिड़ाना पड़ता होगा. या ये भी हो सकता है कि जुगाड़ न बैठ सका हो या भगवान कुछ दूसरे कामों मे व्यस्त रहे होंगे तो अपने प्रतिनिधि के बतौर नेहरू परिवार को भेज कर मानव मात्र विशेषतौर पर भारत पर अपनी कृपा की वर्षा की/ वैसे भी हमारे यहां परिवारों का अलग महत्व होता है “अच्छा तो जनाब फ़लां खानदान के हैं” खानदान के मुगालते से खुश फ़हम लोग वैसे भी आदमी को न तौलके उसके मरे हुये बाप ददा को तौलते रहते हैं/

अब ऐसे में अगर राहुल बाबा कह दें कि यह उनके परिवार का ही काम है कि जिसने पाकिस्तान को सबक सिखाने में कभी कोताही नहीं बरती, तो इतना चिल्लपों भाजपाइयों या किन्हीं और विपक्षियों को मचाने की ज़रूरत क्या है? गनीमत यह रही कि बाबा ने यह नहीं कहा कि “अरे मूढ़मतियो, ये तो हमारे परिवार् का एहसान है कि हम तुम पर शासन कर रहे हैं वरना तुम्हारा क्या होता?” वैसे राहुल बाबा चाहते तो यह भी याद दिलाई जा सकती थी कि हमारे परिवार ने तुम्हे आज़ादी दिलाई है न कि किसी गांधी या सुभाष जैसे नेतृत्व ने/

वैसे राहुल बाबा का इसमें कोई विशेष गलती नहीं है/ तमाम सारे बुजुर्ग कांग्रेसियों को उनमें राजीव जी की छवि दिखाई देती है / राजीव जी भी ऐसे ही अपने भाषणों के लिए अपने सखामण्डली पर निर्भर रहा करते थे/ दर-असल भाषण की उधारी की तुलना में विचारों की उधारी खाना ज़्यादा दयनीय दशा है/ राहुल बाबा का दोष नहीं है उन्हें शायद मां के पेट में ही अभिमन्यु की तरह चुनावव्यूह भेदन की शिक्षा मिल गई होगी/ बची खुची कसर थुलथुलाते शरीर ले कर मैडम की स्पीड पकड़्ने को आतुर पुराने कांग्रेसियों ने पूरी कर दी होगी/ उन्होनें राहुल बाबा को समझाया होगा कि देखिये सर अगर इन जाहिलो पर आप शासन नहीं करेंगे तो ये आपस में लड़ मरेंगे और राज करने का ठेका आपके परिवार को ही दिया गया है/ ये ईश्वरीय वरदान है इसे कोई बदल नहीं सकता/”जिन लोगों को हिन्दुस्तान की जानकारी विदेशी विश्वविद्यालयों में इन्डोलॊजी की किताबें पढ़ के होती है, वे यहां आके राज करने का दावा करें और सब के सब कथित ज़मीन से जुड़े हुये बुजुर्ग नेता दौड़ पडे चरण रज पाने को/ जय हो/ हम कृतकृत्य हुए देव कि आपने हमें इस लायक समझा कि आप हमें शासित होने का मौका दें/’अगर गांधी परिवार का प्रधानमंत्री होता तो बाबरी मस्जिद नहीं गिराई जाती’ बाबा के बयानों की एक और बानगी देखिए/ बस इसमें इतना जोड़ने की गुस्ताखी करूंगा कि अगर गांधी परिवार क प्रधानमंत्री नहीं होता तो शायद देश में एमर्जेन्सी भी नहीं लगती और हिन्दुस्तान शायद सन बासठ की लड़ाई नहीं हारता और शायद कश्मीर समस्या अतिबौद्धिकता के अखाड़े के पहलवानों की नूराकुश्ती से बच जाती/ 

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जय काली कलकत्ते वाली

अप्रैल 15, 2007 at 5:14 अपराह्न (विवक्षा)

अभी कल ही लौटा हूं कलकत्ता या यूं कहूं कोलकाता से. कलकत्ता जाने का उद्देश्य था मोबाइल बैंकिंग की एक कार्यशाला में भाग लेना/ कोलकाता शहर है सुभाष बाबू, देशबन्धु चितरन्जन दास, कवीन्द्र रवीन्द्र और बाघा जतीन का/

ये ही शहर था जिसे अन्ग्रेज़ी हुकूमत की राजधानी बनने का सौभग्य या दुर्भाग्य सबसे पहले मिला/ उस दौर में बंगाल का आर्थिक शोषण सबसे ज़्यादा हुआ और दुनिया के सबसे सम्पन्न और उर्वर इलाकों में से एक इलाका दारिद्रय के दलदल में फ़ंस गया/ आज़ादी के बाद कोलकाता ने डॊ. विधानचन्द्र राय के विधान से लेकर बुद्धदेव की बुद्धि तक सबको परखा और अनुभव किया/ सन १९४७ से १९७७ तक कांग्रेस का शासन रहा पश्चिम बंगाल में और फ़िर १९७७ में उदय हुआ भद्रलोक के ज्योति बाबू का जिन्होने भारत के सर्वाधिक काल तक मुख्यमन्त्री बने रहने का रिकार्ड कायम किया/ यह शायद हिन्दुस्तान ही नहीं तमाम दुनिया में अपने आप में रिकार्ड है/

वामपन्थी शासन शुरू हुआ था समाज में बढ़ते हुये नक्सल प्रभाव और उसके साथ जुड़ी हुई सामाजिक भावनाओं के राजनीतिक घोषणा के रूप में/ नक्सल आन्दोलन १९६७ के आस-पास नक्सलबाड़ी नामक स्थान से शुरू हुआ और चूंकि उन्होनें जिन मुद्दों को उठाया और समाधान की मांग की वे न सिर्फ़ सामयिक और क्रिटिकल थे बल्कि जन-मानस को उद्वेलित करने और अपने लिये तमाम वर्गों में समर्थन हासिल करने में भी सफ़ल रहे/ राजनीतिक व्यवस्था के प्रति अपना आक्रोश और विरोध जताने के लिये इस वर्ग ने अपना एक अलग रास्ता अख्तियार किया/ और बहुधा ऐसा हुआ कि क्रियान्वयन के तरीकों पर तो विभिन्न समुदाय और वर्गों से विरोध के और असहमति के स्वर उभरते रहे परन्तु उन मुद्दों और वाज़िब चिन्ताओं से कोई असहमति नहीं जता सका/ बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग भी उन मुद्दों और कुछ हद तक क्रियान्वयन के तरीकों का हिमायती था/ बहरहाल वामपन्थी शासन आया और इसे हिन्दुस्तान में सर्वहारा के विजय की दिशा में मील का पत्थर माना गया/

इस बारें में निःसन्देह मानना होगा कि भूमि सुधारों की दिशा में बंगाल की सरकार ने सही दिशा में काम किया और उसे एक परिणिति तक पहुंचाया/ इसके अतिरिक्त और भी कुछ बड़े कार्य सामाजिक समानता बढ़ाने और आर्थिक विषमता हटाने के लिये हुए/ लेकिन इस दिशा में चलते हुए ज्योति बसु की सरकार ने बंगाल को वामपंथ की प्रयोगशाला बना दिया/ औद्योगिक विकास को इस राज्य में बुर्जुआ प्रतीक माना गया और हाथ रिक्शा चलाना सर्वहारा के हितैषी होने का/ लुब्बोलुआब ये कि राज्य का औद्योगिक विकास ठप्प पड़ गया और उस पर कोढ़ में खाज ये कि निरन्तर बढ़्ते हुए पड़ोसी देश से आव्रजन को रोकने के लिये सरकार ने कुछ कदम उठाए नही जिसके चलते पहले से ही सीमित अवसरों और संसाधनों पर अत्यधिक अतिरिक्त भार पड़ने लगा/

तो खैर मुद्दे पर वापिस आते है/ मैं सोचता हूं कि कोलकाता सिर्फ़ मां काली के कालीघाट का या रामकृष्ण परमहन्स के दक्षिणेश्वर का शहर नहीं बल्कि ये शहर है रेंगते हुये ट्रैफ़िक और फ़ुटपाथों पर घिसटती हुई ज़िन्दगियों का भी/ इतने बड़े शहर में जहां भी आप गुज़रें आपको फ़ुटपाथ पर बने हुए दड़बे मिल जायेंगे/ यदि बिना भवुक हुए सोचें तो भी ये शर्म की बात है कि वामपन्थ का नारा देने वाली और लेनिन-मार्क्स का नाम जपने वाली सरकारें अपने नागरिकों को एक साफ़-सुथरा शहर भी नहीं दे सकीं, हर आदमी के लिये रोटी-कपड़ा और मकान तो दूर की कौड़ी है/

दुष्यन्त शायद ऐसे स्थिति के लिये काफ़ी पहले फ़रमा गये –

“कहां तो तय था चिरागां हर एक घर् के लिये,कहां चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये”

खैर राज्य चर्चा के उपरान्त यात्रा वृतान्त ये है कि हम गये कालीघाट- मां काली का स्थान जिसके नाम पर कोलकाता का नामकरण हुआ/ इस मन्दिर पर पहुंचते ही पण्डा वृन्द हम पर झपट पड़ा मगर इस प्रकार की घटनाओं से दो-चार हो चुके होने के कारण हमको पता था कि इस झपट्टा झुण्ड से कैसे निपटना है.

कालीघाट काफ़ी प्रसिद्ध और प्राचीन मन्दिर है और कोलकाता आने वाला प्रायः प्रत्येक धार्मिक श्रद्धालु यहां आता है/ भारत में कुछ गिने-चुने मुख्यधारा के मन्दिर बचे है जहां पशुबलि की अन्धपरम्परा और मूढ़ मान्यता अभी भी जारी है/ कालीघाट के देवस्थान में भी ऐसा ही है/ मन्दिर के ठीक सामने पशुबलि के खंभ अवस्थित हैं और वहीं बलि दी जाती है/ बलि की यह परम्परा अभी तक कैसे चल रही है इसके अपने कारण हैं जिन पर विस्तार से चर्चा फ़िर कभी/

तो मन्दिर में पहुंचने के पहले जूते उतारने के लिये हमने कोई जूता स्टैंड नुमा कुछ खोजने का प्रयास किया और मैं यह जान के चकित रह गया कि इतने बड़े मन्दिर जहां हज़ारों श्रद्धालु नित्यप्रति पूजन-आराधन के लिये आते है वहां जूता स्टैंड की कोई व्यवस्था ही नहीं है. सब खुला दरबार है जूते उतारने के लिए आपको किसी भी दुकानदार से कुछ पुष्प-पत्र लेना पड़ेगा/ मैं संघर्ष के मूड में नहीं था और फ़िर मुझे नन्दीग्राम के बारे में पता भी था तो व्यवस्था में ही समझौता कर लिया/

मन्दिर की तरफ़ बढ़ने की दिशा में तमाम सारे दुकानें बनी हुई हैं जो मिल जुल कर मन्दिर का प्रवेश पथ संकरी गली जैसा बना देती हैं/ और उस संकरी गली में भारी कीचड़ और गन्दगी थी जो कि ऐसा आभास करा रही थी कि जैसे मन्दिर को बरसों से धोया नहीं गया हो/ प्रवेश के बाद मन्दिर का प्रांगण और भी गन्दा था कुछ श्रद्धालु गण मन्दिर के मण्डप में बैठे हुए मां काली का आराधन कर रहे थे/

ऐसी विराट आस्था के केन्द्र इस स्थान पर मन्दिर के दर्शनार्थियों के लिये न तो उचित रूप से पंक्तिबद्ध होने की व्यवस्था थी न ही उन्हें तीखी धूप से बचाव के लिये कोई शेड की व्यवस्था/ हमने भीड़ से हट्कर लाइन में लगे और कोशिश की अपनी आस्था श्रद्धा साबुत रख सकें, मगर भीड़ और कोल्कता की उमस भरी गर्मी में हमारी हिम्मत नहीं पड़ी कि वहां खड़े रह कर २-३ घन्टे इन्तज़ार कर सकें/

मुझे नहीं पता था कि भगवान वास्तव में इतनी कठिनाई से मिलते है/मन्दिर का प्रांगण छोटा है और उस पर भी अव्यवस्थित है. (उज्जैन में महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग है और उसमें तकरीबन १०००० लोगों के एक समय में मन्दिर में खड़े होने की क्षमता है वह भी पूरे आराम के साथ)/

जब मैं उस भीड़ में खड़ा हुआ था तो सोच रहा था कि धर्म को अफ़ीम की गोली समझने वाले विचारकों और उसके कार्यान्वयकों ने धार्मिक स्थलों की आत्यन्तिक उपेक्षा करके अपने नागरिकों को कष्ट दिया या वामपन्थ की दिशा में मील का पत्थर तय किया/ खैर वहां से दर्शन लाभ तो हो नहीं सका, हम उसके लिये गये भी नहीं थे/ गये थे प्रख्याति और प्राचीनता के दर्शन के लिये/

इसके बाद प्लान हुआ कि दक्षिणेश्वर चला जाए/दक्षिणेश्वर है कोलकाता के उत्तर दिशा में/ यह मन्दिर रानी रासमणि देवी ने बनवाया था और इसी मन्दिर के पुजारी थे स्वामी रामकृष्ण परमहंस/ मां काली के परम भक्त और साधक/ हुगली के तट पर बना है ये मन्दिर/ विशालता और सौन्दर्य में यह मन्दिर अद्भुत लगा/ मन्दिर का स्थापत्य टिपिकल बांग्ला शैली का है/ ईंटों की चिनाई वाली लदाऊ छतें और छ्त को घेरते हुये आगे की तरफ़ झुके कुछ चौरस से गुम्बद/

मैं सोचता हूं कि स्थापत्य की इतनी शैलियां और इतना वैविध्य कहां से आता होगा निर्माणकर्ताओं के दिमाग में/  हिन्दुस्तान में जिस इलाके में जाइए आपको अलग प्रकार का निर्माण कला और स्थापत्य मिलेगा, जो कि नितान्त मौलिक विशिष्टताओं के साथ अपने अलग अस्तित्व का बोध करवाता हुआ प्रतीत होगा/ मुख्य मन्दिर देवी काली का है और उसके सामने ही बहती है खूब चौड़े पाट की हुगली/ इतनी लम्बी चौड़ी नदी देखना हम मध्यप्रदेश के लोगों के लिए तो प्राकृतिक सौन्दर्य का कारक हो ही सकती है/ कुल मिला के नैसर्गिक सुषमा का दृश्य अभी तक मेरी निगाहों के सामने है/ आशंका के विपरीत हुगली इतनी गन्दी नहीं है जितनी कि गंगा कानपुर या अन्य किसी औद्योगिक शहर में है/ तट पर खड़े हुए ताड़ के गाछ और किनारे लगी हुई नावें एक ओर से दूसरे ओर अनवरत रूप से यात्रियों को पहुंचाती रहती हैं लगा कुछ ऐसा कि मानो सत्तर के दशक की हृषिकेष दा की फ़िल्म का कोई सीन है/

यहां से बेलूर मठ के लिए नाव पर जाना होता है/ बेलूर मठ है स्वामी रामकृष्ण परमहंस और उनकी लीलासंगिनी मां शारदा का स्थान/ यह स्थान स्वामी विवेकानंद से जुड़ा हुआ है/ रामकृष्ण मिशन इसका संचालन और देखभाल करता है/ और इसी की वजह से यह मठ और इसके आस-पास का वातावरण सुरम्य, स्वच्छ और सुन्दर है/ नाव से उतर कर मठ में जब पहुंचे तो हम लोग लेट हो गये थे/ मठ का समय १२ बजे दोपहर तक ही रहता है और हम साढ़े १२ बजे पहुंचे थे, तो ज्यादा कुछ घूमने का समय नहीं मिल सका/ मुझे जल्दी ही लौट के आना था क्योंकि लखनऊ आने वाली उड़ान में सिर्फ़ ३ घंटे शेष थे/ तो ये था कोलकाता प्रवास का इतिवृत्त यानि कि चिट्ठा/

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गायकी का अलग अन्दाज़- शोभा गुर्टू

अप्रैल 14, 2007 at 6:12 अपराह्न (कुछ इधर की कुछ उधर की)

आर्कुट नाम की चीज़ से जो मुझे सबसे ज़्यादा फ़ायदा हुआ वो ये कि तमाम सारा शास्त्रीय संगीत उपलब्ध हुआ सुनने के लिये/कुछ दिन पहले श्रीमती शोभा गुर्टू जी की कुछ ठुमरियां डाउनलोड की/ शोभा जी हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की महान गायिकाओं में से रही हैं उनकी मां मेनकाबाई शिरोड़्कर भी बड़ी गायिका थीं/ शोभा जी ने मुख्यतः उपशास्त्रीय गाया है यानि कि दादरा ठुमरी, चैती और कजरी मगर उपशास्त्रीय के लिये भी तालीम और रियाज़ में कोई छूट की गुन्जाइश है नहीं/शोभा जी लगभग २ वर्ष पूर्व दिवंगत हो गईं ७८ साल की उम्र में, मगर उनका संगीत विचक्षण है हालांकि उनके संगीत की तकनीकी बारीकियां तो सुर-ताल के महारथी ही जानें मगर अपने को सुनने में जो अच्छा लगे वही बढ़िया लगता है/ उन्हें ठुमरी की साम्राज्ञी की उपाधि दी गई हालांकि उनसे पहले भी कई गायिकाओं ने उपशास्त्रीय गाया है और समकालीन में भी गा रही हैं, मगर वह बुलन्द आवाज़ और खुले गले की गायकी शोभा जी की विशेषता है/ जिन मित्रों का शास्त्रीय संगीत से थोड़ा दूर का नाता है उनके लिये बता दूं कि फ़िल्म “मैं तुलसी तेरे आंगन की” में “सैयां रूठ गये”  और “प्रहार” में “याद पिया की आये” ठुमरियां शोभा जी ने ही गाई है/ कभी मौका मिले तो ज़रूर सुनें एक अलग मज़ा आयेगा.शास्त्रीय संगीत की तकनीकी बारीकियों से अनभिज्ञ हमारे जैसे लोग भी आनन्द उठा सकते हैं इसका/ उस्ताद विलायत खान साहब फ़रमा गये हैं कि “ठुमरी गाने के लिये तो अल्लाह मियां एक दिल देवें तभी सुनने में मज़ा आता है” तो ठुमरी है भाव की गायकी/ भाव जितना ज़्यादा सही तरीके से और जिस तीव्रता से श्रोता तक पहुंचता है वही गायकी की सफ़लता मानी जाती है/ इस विषय पर थोड़ी गप-शप और मन्थन फ़िर कभी/

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पुनरागमन

अप्रैल 14, 2007 at 6:03 अपराह्न (Uncategorized)

प्रिय मित्रोयह ब्लोग पहले चल रहा था blogspot पर मगर तमाम सारी वजहों से यह स्थायी नही रह सका, जिसमें सबसे बड़ी वजह थी हमारा आलस बहरहाल blogspot ने आखिरकार हमारी ब्लोग से हमारा ही अधिकार छीन लिया तो सोचा कि दूसरे मोहल्ले में दुकान लगाई जाये/ बहुत बार दोस्तों ने पूछा है कि सम्बदिया का मतलब क्या है? इसके मायने क्या है? तो उन आदरणीय पाठकों की जानकारी हेतु बता दूं कि सम्बदिया का मतलब होता है एलची, खबरची, दूत, सम्वाद वाहक/ महान कथाकार फ़णीश्वर नाथ “रेणु” की एक प्रख्यात कहानी का नाम भी है/ सम्वदिया दोबारा शुरू करने की ललक काफ़ी दिनो से मन में थी मगर बस आलस्य और दीर्घसूत्रता के कारण काम हो ही नहीं पा रहा था.. उस पर मज़ा ये कि लिखने का सरन्जाम तमाम गायब..बहरहाल कुल जमा बात ये कि लिखने का क्रम इसमें टूट गया.इस बार कोशिश रहेगी कि अपनी कवितायें झिलाने के अलावा कुछ और भी लिख सकूं/रोज़ सुबह का अखबार कुछ न कुछ नया दे डालता है विचार-मन्थन को/ अपने यहां मुद्दों की कमी है क्या? एक छॊड़ हज़ार मिलते हैं/

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