मई 18, 2011 at 4:31 अपराह्न (कुछ इधर की कुछ उधर की)

दो स्वरों के बीच होता है मौन
होती है निस्तब्धता
और होता है निस्पंद
स्वरों की गूंज में सुनाई नहीं देता वह मौन
जो अलगाता भी इन्हें
और बनाता भी है एकाकार
क्या वही होता है फर्क जो दिखाई देता है
या कहीं और कुछ आंच पे चढ़ा,
अदन सा उबलता रहता है बिना उफनाए
गान में कोई राग हो न हो, मेलोडी का अभाव हो तो भी
विद्यती है सत्ता उस स्वर की,
जो उपजा था मौन के व्यतिक्रम से
सागर की लहर और श्लाघ्य गाम्भीर्य में कही जोड़ है भीतर
जिसे भिन्न किया मरुत की गति ने
शीर्ण जरायु होते व्योम पर ज्यो नीलाभ लालिमा छाए
वैसे ही उपरिआरोपित होते है स्वर, मौन के

16-05-2010

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अप्रैल 17, 2011 at 10:58 पूर्वाह्न (कुछ इधर की कुछ उधर की)

विषय सोचने से नहीं बंधती कविता
विषय सोचकर लिखे जाते होंगे निबंध या कुछ और
बस शुरू करते हैं कुछ शब्दों के समयोज वियोजन  से
शब्द जो उड़े चले आते हैं टिड्डियों की तरह
खुद ब खुद रास्ता खरादते अपना
बेपंख बेबात बहे आते हैं जो
सुगंध फैला देते हैं चारों और
और हम देखते हैं अनंत आभा शब्दों की
जैसा वो चाहें वैसा
बनती हैं अनगिन आकृतियाँ
जिनका रहस्य रहस्य ही रह जाता है
धीरे धीरे धीरे जमते हैं शब्द
तलछट की गाद की तरह और बनती हैं वे आकृतियाँ
जिन्हें लोग कह देते हैं यूँ ही अजाने में कविता

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अप्रैल 17, 2011 at 10:56 पूर्वाह्न (कुछ इधर की कुछ उधर की)

जलती है ट्यूब लाईट
सफ़ेद और सफ़ेद
फिर भक से बुझ जाती है
दिया ठहरता ठहरता जलता है
जैसे जंगल में लगी हो आग
और फिर पानी पड़ गया हो ऊपर ऊपर
नाचती है कठपुतली धमधम रुक रुक धमधम
दूर नगड़िया की चोट पर कर रही बेडनी नाच
मैया के मेले में मानता पूरी करने
गंध शब्द सब उड़ उड़कर उड़ते हैं कहीं
किन्हीं कोनों से
मैं निर्वसन समाता हूँ इन शब्दों में
नाचते हैं आकर आकृति
कौंधती हैं रश्मियाँ

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बस एक खबर का सवाल है….

अगस्त 12, 2008 at 3:54 अपराह्न (विवक्षा)

शुरू करते हैं एक खबर से .. वैसे तो ये रोज़ का ड्रामा है मगर आज बड़ा इरिटेटिंग हो गया. कल ज़ी न्यूज़ के सज्जनों ने पूरा शाम हंगामा काटा इस बात पर कि अभिनव बिन्द्रा को स्टेडियम से बाहर जाने के लिये कथित रूप से कार नहीं मिली, ये देश का अपमान है वगैरह वगैरह (हालाँकि ये खुद मूर्खतापूर्ण खबरें दिखा के जनता का अपमान करते हैं मगर उसे छोड़िये).
इस खबर का पिष्ट पेषण करते हुये उबाऊ तरीके से इस खबर को ज़ी न्यूज़ वाले दिखाते रहे / कुछ देर बाद इंडियन शूटिंग एसोसिएशन के अध्यक्ष दिग्विजय सिंह से उन्होंने बात की. बेचारे दिग्विजय बाबू पूरा ज़ोर लगा के इस सब घटना को एक सामान्य घटना बताते रहे. (हालाँकि राजनेताओं की बात पे भरोसा करना कोई अकलमन्दी की बात नहीं है ऐसा बुज़ुर्ग कह गये हैं मगर मीडिया का भी कोई भरोसा नहीं है पता नहीम कब किस को उमा खुराना बना दें)
मगर सम्भवतः समाचार वाचिका ने बात करने के लिये नहीं सिर्फ़ झगड़्ने के लिए बुलाया था. इसी क्रम में दिग्विजय बाबू से कहा गया कि आप इस सम्वाददाता से सीधे बात कर लें. इस सब में मज़ेदार ये रहा कि जैसे ही उस सम्वाददाता ने माना कि “नही, गलत तो कुछ नहीं था” वैसे ही कनेक्शन काट दिया गया और फ़िर वही राग “मान-अपमान” की आलाप लगाने लगे. वैसे भी आजकल समाचार बनाये जाते हैं न कि एकत्र किये जाते हैं. यह सब एक भयानक रिक्ति प्रदर्शित करता है और कुछ नहीं. ऐसा माना जाता है कि मीडिया में कायदे के और बौद्धिक रूप से परिपक्व लोग एकत्र होते हैं मगर फ़िलहाल ऐसा लगता है कि तमाम सारे नाकारा और मूर्ख लोग वहाँ से अपने मठों का सन्चालन कर रहे हैं. एकाध चैनल को छोड़ दिया जए तो सब के सब शनि देवता और भूत वाली बावड़ी को राष्ट्रीय समस्या मान के उसे कवर करने में लगे रहते हैं.
बिन्द्रा की जीत के बाद बेहतर होता कि खेलों में सुधार की नयी सम्भावनाओं के बारे में चर्चा होती, मगर ये लोग यही पूछ्ते रहे कि “अभिनव को खाने में क्या पसन्द है? वो रोटी ज़्यादा खाता है या चावल?”
जब जम्मू जल रहा हो तब ये लोग व्यस्त रहते हैं सलमान शाहरुख की लड़ाई को दिखाने में. यह सब एक नया सामन्तवाद है जिसमें कुछ लोगों पर इतना ज़्यादा तवज्जो दिया जाता है कि बाकी सब अस्तित्वविहीन हो जाते हैं.
हमारा सम्विधान कहता है कि एक प्रमुख उद्देश्य होगा “नागरिकों में वैज्ञानिक चेतना और सोच का प्रसार”. सवाल यह है कि हफ़्ते में सात दिन तान्त्रिक साधना और ग्रह शान्ति के कार्यक्रम दिखा के, किसी सीधी सादी घटना को भी रहस्य राज़ साजिश के त्रिकोण में दिखा के क्या ये चैनल्स सम्विधान का उल्लंघन नहीं करते? इन्होंने एक अजीब किस्म का नशा मुल्क़ पर तारी कर रखा है.
एक अजीब किस्म का नशा बस खाओ पिओ और खोये रहो..सास बहू की काल्पनिक लड़ाइयों में, ज्योतिषाचार्यों के सुबह सुबह वाले भविष्यफ़लों में और क्रिकेट के नशे में और बाकी समय उसकी खुमारी में.
प्रायः कहा जाता है कि मीडिया तो समाज का दर्पण है जैसा हो रहा है वैसा दिखाया जाएगा. वही लोगों को पसन्द है. अगर इस बात पर यक़ीन करें तो यह मानने के अलावा कोई चारा नहीं कि हम बौद्धिक और भावनात्मक रूप से दिवालियेपन के कगार पे खड़े हैं. अभी मीडिया सिर्फ़ आइना दिखाने से बहुत आगे बढ़ गया है. इसे अपनी मूर्खतापूर्ण हरकतों से बाज़ आना चाहिये. क्या हिन्दी चैनल देखने वालों के ये सब ….उल्लू (मैं दूसरा शब्द लिखना चाह रहा था लोग समझ गये होंगे!) समझते हैं?

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देहभाषा की रणनीति

जून 23, 2008 at 6:32 पूर्वाह्न (विवक्षा)

इन दिनों टी.वी. पर देखने के लिये कोई भी चैनल लगाइये तो एक जैसा ही सब कुछ नज़र आता है/ सारे चैनल वालों, यहाँ तक कि बुद्धिजीविता की अलम्बरदार NDTV को यह विश्वास हो चुका है कि जनता कुछ और देखना नहीं चाहती सिर्फ़ साँप, नागिन रहस्य रोमांच और तान्त्रिक विद्याओं का सीधा प्रसारण देखना चाहती है/ सीधा यानि लाइव और लाइव से तो करेन्ट लगता है न/ इन्हीं लाइव शोज़ की जमात में एक और नाम जुड़ा है रियल्टी शोज़ का/ एक ऐसा ही रियल्टी शो प्रसारित हो रहा है आजकल MTV पर जिसका नाम है Splitsvilla/ इसमें 20 बालाएँ 2 लड़्कों को पटाने के लिये फ़्लर्ट कर रही हैं/ इसको कहा जा रहा है रोमान्स रियल्टी शो/ यह तो बाद की बात है कि इस रोमान्स में प्यार-व्यार टाइप की चीज़ कितनी होगी अभी तो सब का दिमाग जीतने पर मिलने वाले पैसे में लगा हुआ है/ सवाल यह है कि क्या लड़कियाँ सिर्फ़ एक प्रोडक्ट है जिनका काम सिर्फ़ लड़्कों को यानि कि अपने सम्भावित टारगेट क्लाइन्ट्स को आकर्षित करना है? क्या ऐसे कार्यक्रम और शो नारी की गरिमा के प्रतिकूल नहीं हैं? नारी या पुरुष की बात नहीं मानव की गरिमा के प्रतिकूल हैं/
हालाँकि यह साफ़ कर देना मौज़ूँ होगा कि अपन कोई धर्मध्वजी नहीं हैं ना ही भारतीय संस्कॄति के पतन की चिन्ता हमको सता रही है/
बिना नारीवाद का झण्डा बुलन्द किये और मोमबत्ती वाले प्रदर्शनकारियों की जमात में शामिल हुये भी यह सवाल मुझे सता रहा है/ यह सवाल सिर्फ़ एक कार्यक्रम से उपज पड़ा हो ऐसा तो नहीं है मगर सब प्रकार के कार्यक्रमों में, विज्ञापनों में और सबसे बड़ी बात विचारसंकुल में यह कन्सेप्ट या अवधारणा गहरे तक पैठते जा रही है/ आधुनिक आर्थिक क्रान्तिकारी परिवर्तनों के चलते यह विश्वास बन रहा है कि औरत ज़्यादा आजाद, सक्षम और स्वनिर्भर हो रही है जिसके चलते शायद दुनियाँ रहने के लिये एक बेहतर जगह होगी, मगर फ़िर वही जन्ज़ीरें किसी दूसरे नाम से डाली जा रही हैं और दुख की बात यह है कि इन पर सवाल भी नहीं उठाए जा रहे/
शायद ही कोई ऐसा विज्ञापन हो या कार्यक्रम हो जिसमे लड़कियों को यह धर्मादेश की भाँति बार बार न बताया जात हो कि तुमको गोरा होना है, खूबसूरत दिखना है और बाकी सब चीज़ें गईं भाड़ में ऐसे युवाओं से अगर किसी दिन हिन्दुस्ताने के प्रदेशों के नाम पूछ लो तो हवा सटक जाए/ सारी की सारी रणनीति सिर्फ़ देहभाषा तक सिमटती प्रतीत होती है/ चार्वाक के दर्शन क मतलब तो अब पता चल रहा है साब/ हालाँकि भौतिकता में कोई बुराई नहीं है/ ओशो बाबा की कुछ बातें जो मुझे ठीक लगती हैं उनमें एक यह भी है कि “हिन्दुस्तान वैसे ही आध्यात्मिकता के चक्कर में फ़ँस के बहुत कुछ गँवा चुका है, अरे उस लोक को सुधारने के पहले इस लोक को तो सुधारो/”
मगर अतिशयता तो इसकी भी बुरी ही है न/ दर-असल खूबसूरत दिखना कोई बुराई नहीं है मगर खूबसूरत दिखने का ख़ब्त हो जाना बीमारी है/ यह बीमारी हमारे यहाँ बेहिसाब तरीके फ़ैल रही है मानो कि हैज़ा हो/ बीमारी का मतलब आपके शरीर के सारे सन्साधन, स्रोत सब इसी की पूर्ति में लग जाते हैं उससे होने वाले क्षय और क्षरण को निवर्तन में/ इसी तरह इस खब्त में भी आपके सारे मानसिक शारीरिक स्रोत ऊर्जा आवेश सब सुन्दर दिखने में ही खर्च हो रहा है/ परेशानी का सबब यह है कि इन सबके चलते सामाजिक दायित्व, और समाज के साथ सन्निकटता क ज़बर्दस्त ह्रास हो रहा है/ और खुब्सूरत किसलिये दिखना ताकि लड़के आप पर आकर्षित हों और कुछ दिन फ़िदा रहें/
एक प्रायोजित प्रक्रम चल रहा है कि घुमा फ़िरा के यह बात समझा दी जाए कि बिना खूबसूरत दिखे तुम दुनियाँ में रहने लायक नहीं हो/ विशेषकर साँवला या काले रंग की लड़कियाँ या जिनके नैन नक्श अन्ग्रेज़ों सरीखे न हों/ यह बात समझने वाली है कि हिन्दुस्तान का आदमी सौन्दर्य के अगर ग्रीक मानदण्ड अपनाएगा तो काम चलने वाला नहीं है/ लैटिन सौन्दर्य में गोरे रंग नीली आँखों का महत्व हो सकता है मगर क्या ज़रूरी है कि ग्लोब के इस हिस्से में भी उन्हीं परिभाषाओं में सार्वत्रिक सत्य का संज्ञान कर लिया जाए? दर-असल सुन्दर दिखने में बुराई या अच्छाई वाली बात नहीं है/ सवाल यह है कि इन तमाम सारी चीज़ों के चलते जो हीन-भावना और ग्रन्थि तेज़ी से उत्तप्त की जा रही है बनिस्पत तथाकथित कम सुन्दर लड़कियों में, उसका हर्ज़ा कौन देगा? यह मूल कन्सेप्ट हो गया है हर एक विज्ञापन में, शो में, सीरियल्स में, जहाँ से हिन्दुस्तान गायब होता जा रहा है और इन्डिया छाता जा रहा है/ जिनमें कोई भी युवा लैटिनो से कम नज़र नही आना चाहता/
कुछ दिन से एक और आयाम जुड़ा है कि आज का बच्चा आज का भी उपभोक्ता है और कल का पक्का उपभोक्ता है/ कुछ दिन पहले एक एड देखा जिसमें छोटी सी बालिका को लम्बे घुँघराले बालों का महत्व समझाया जाता है और निष्कर्ष यह कि अमुक शैम्पू सबसे अच्छा है/ यदि बालमन में भी यह सब दिन रात बैठाते रहा जाएगा तो हमारे यहाँ नागरिक नहीं सिर्फ़ उपभोक्ता पैदा होंगे/
अपने साथ यह समस्या है कि बात कहाँ से शुरू हुई और कहाँ पहुँच जाती है/ बहरहाल ऐसे कार्यक्रमों पर रोक लगे ये तो कहने का दुस्साहस मै नही करूंगा मगर सोचने की बात यह है कि तथाकथित आज़ादी की हिमायती महिलाएँ ऐसे कार्यक्रमों पर चुप क्यों है जिनका उद्देश्य महिलाओं को सिर्फ़ एक उत्पाद और कमोडिटी के तौर पर पेश करना है/

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आया बम का मौसम आया

जून 20, 2008 at 4:35 पूर्वाह्न (विवक्षा)

अभी सब लोग तैयारी कर लो…हिन्दू आत्मघाती बमों का मौसम आने वाला है/ महामहिम लोगों के दिमाग का एक और फ़ितूर/ राजनेताओं का काम ही शिगूफ़े उछालना है/ मुझ पर भी इस शिगूफ़े का भी असर इतना तो हुआ ही कि मेरा ब्लोग जो इतने दिन से बन्द पड़ा था आज इतनी व्यस्तताओं के बावजूद खुल गया/ बिना किसी वामपन्थी नुमा सेकुलर क्रेडेन्शियल्स के मोह पाश में फ़ंसे भी, यह बिल्कुल आसानी से बताया जा सकता है कि इस बयान का उद्देश्य क्या था? हालाँकि लोगों ने इस बयान की भर्त्सना की है और इस बालोचित विश्वास के चलते कि भर्त्सना के उपरान्त सब ठीक ठाक हो जाता है कानून का राज कायम हो जाता है महाराष्ट्र सरकार ने कोई कार्यवाही नहीं की/ वैसे वर्तमान महाराष्ट्र सरकार कार्यवाही करने के लिये नहीं बल्कि न करने के लिये ज़्यादा प्रसिद्ध रही है/ बहरहाल कुल जमा ये कि अब हिन्दू आत्मघाती दस्ते बनाये जाने हैं जिनका काम बांग्लादेशी घुसपैठियों की अवैध बस्तियों में फ़टना होगा/ बान्ग्लादेशी बस्तियों से याद आया एक मुख्यमन्त्री ठीक केन्द्र की नाक के नीचे बैठ के यह बयान दे चुकी हैं कि हिन्दुस्तान मे तो अतिथि सत्कार की परम्परा है और बांग्लादेशी इस नाते हमारे अतिथि हुए/ यह एक अलग चरम मूर्खता है/ हालांकि यह विश्वास कर पाना अत्यन्त दुष्कर प्रतीत होता है कि राजनीति के ऊंचे स्थानों को स्पर्श कर अरहे ये सत्ताधिष्ठान क्या वास्तव में इतने मूर्ख हैं? बचपन में मैं एक चुट्कुला सुनता था कि “मूर्ख बनने का ढोंग करते रहो ताकि दुनियां तुम्हें मूर्ख समझे मगर वास्तव में तो तुम मूर्ख हो नहीं इसलिये बेवकूफ़ कौन बना? दुनिया!” शायद इन्हीं रेखासूत्रों पर ये लोग चलते रह्ते हैं/ आश्चर्य नही कि ऐसे बयानों के समर्थक भी मिल जायें/ कबिरा इस सन्सार में भांति भांति के लोग…. बाकी यह बात समझने वाली होगी कि ये भांति भांति के लोग हमारी राजनीति में ही क्यूं भरे पड़े हैं/ बहरहाल एक सवाल पूछने की ज़ुर्रत करना चाहता हूं क्या बालासाह्ब अपने पुत्र-पौत्रों को इस धर्मयुद्ध में भेजेंगे या सिर्फ़ प्यादों को ही पिटवाया जायेगा? क्या उद्धव ठाकरे साब अपने शरीर पर बम बांध के “देशद्रोहियों” की मांद में घुसेंगे या “चढ़ जा बेटा सूली पर, भली करेंगे राम” रहेगा?

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भाषा की विभीषिका

अक्टूबर 17, 2007 at 6:53 पूर्वाह्न (कुछ इधर की कुछ उधर की)

भाषा का इस्तेमाल किस तरह से अपने निजी और राजनैतिक उद्देस्यों की पूर्ति के लिये होता है यह कोई नयी या अपरिचित बात नहीं है/ सातवें दशक में त्रिभाषा फ़ार्मूला शिक्षा के क्षेत्र में लागू करने के समय भी ऐसा ही कुछ था/
ताजातरीन घटना झारखन्ड की है जहाँ एक नितान्त लँगड़ी अक्षम और व्यावहारिक तौर पर अस्तित्वविहीन सरकार ने उर्दू को द्वितीय भाषा घोषित कर दिया है/ ज्ञातव्य है कि इस प्रकार की माँग बंगाली, सन्थाली और अन्य बोलियों की तरफ़ से भी आ रही थी/ मगर इन सबको नज़र-अन्दाज़ करते हुए उर्दू को यह दर्ज़ा देने का फ़ैसला किया गया/
बतौर एक भाषा उर्दू से किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती, मगर झारखण्ड में यह कितनी व्यावहारिक और अपरिहार्य है, यह विचारणीय बिन्दु है/ झारखण्ड एक जनजातीय बहुल राज्य है जिसमें कई लोकभाषाएं प्रचलित हैं, ये लोकभाषाएं जनजातीय समाज का इतिहास, वाचिक परम्परा और संस्कृति की अभिन्न सहचरियों की भूमिका निभाती चली आ रहीं हैं/ काफ़ी बड़ी संख्या में बंगाली प्रवासी भी इस राज्य में हैं जो बंगला को द्वितीय भाषा का स्तर देने का मज़बूत आधार और तर्क प्रस्तुत करते हैं/ इन सब तर्कों और भावनाओं को निरस्त करते हुए, राजनैतिक सौदेबाज़ी के तहत और चिरन्तन वोट बैंक पॉलिटिक्स के मँझे हुए खिलाड़ियों ने उर्दू को राजभाषा बना दिया/
विडम्बना यह है कि उर्दू भाषियों की संख्या राज्य में न केवल अल्प परिमाण में है बल्कि यह भाषा ऊपर से थोपे गये होने का भी आभास कराती है क्योंकि यह जनजातीय लोगों के जीवन पद्धति से जुड़ी हुई नहीं है/ विडम्बना यह भी है कि प्रदेश की मुख्यमन्त्री की गद्दी पर मधु कौड़ा विराजे हुए हैं, जो स्वयं जनजातीय वर्ग से सम्बद्ध हैं/ ज़्यादा तार्किक और बेहतर यह होता कि किसी लोकभाषा को यह दर्ज़ा दिया जाता जिससे आदिवासी और पारम्परिक समुदायों को मुख्य धारा में लाने की शासकीय वादों की भूतल स्तर पर परिणिति की दिशा में एक मजबूट कदम माना जाता/ (मुख्य धारा का मिथक भी विवादास्पद है क्योंकि मुख्य और गौण तय करने का अधिकार हमको किसने दिया?)
यह समझना बिल्कुल बुद्धि के परे है कि क्यों जनजातीय समुदायों की माँगों को नकारा जाता है और धार्मिक अल्पसंख्यकों की माँगों को बिना किसी हो हल्ले के चुपचाप मान लिया जाता है/
एक अद्भुत सरकार ऐसा ही कर सकती है क्योंकि उसे किसी भी समय चुनाव की रणभेरी सुनाई दे सकती है/ और ऐसे में राज्य के धर्म निरपेक्ष नेता गण अल्प्संख्यकों के विकास के बजाय भाषा और त्योहारों की छुट्टी के नाम पर वोट माँगने जा सकते हैं/
भाषा के साथ ऐसा खेल वे ही लोग खेल सकते हैं जिन्हें दिन के ३ बजे भी राजनीति सूझती है और रात के ३ बजे भी/

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चन्द्रशेखर का अवसान- एक युग का समापन

जुलाई 11, 2007 at 5:30 अपराह्न (कुछ इधर की कुछ उधर की)

अध्यक्ष जी का देहावसान हिन्दुस्तान की राजनीति के छायादार बरगद के पेड़ का गिरना है/ एक ऐसा पेड़ जिस पर लोग आशा की दृष्टि से देखते थे/ राष्ट्रीय मुद्दों पर उनकी राय ली जाती थी और गुनी जाती थी/ तेजी से क्षरित होते जाते राजनीतिक मूल्यों के इस दौर में अध्यक्ष जी उन चन्द नेताओं में थे जिनके लिए लोगों के दिलों में सम्मान था, जिनकी तरफ़ आशा और अपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता था/ युवा तुर्कों की तिकड़ी के नेता कांग्रेस के उस हरावल दस्ते में शामिल थे जिसने कांग्रेस के भीतर रहकर इमर्जेन्सी का विरोध किया/ भले ही इसके चलते उन्हें जेल भेज दिया गया/
चन्द्रशेखर की राजनीति के स्टाइल और तरीके को लेकर भले ही कई मत प्रतिमत रहे हों मगर उनका सुदीर्घ और बेदाग़ संसदीय जीवन अपने आप में सम्मान और श्लाघा का विषय है/
यह बात चन्द्रशेखर में ही थी कि सांसद गण दलीय सीमाओं से परे उनका सम्मान करते थे/ संसद की कार्यवाहियों के सजीव प्रसारणों में कई बार अध्यक्ष जी को संसद को दिशा देते हुए और घर के बुजुर्ग की भूमिका में देखा/ बुजुर्ग भी ऐसा जो वास्तव में मर्यादा और नीतियों का पक्षधर हो न कि सिर्फ़ लीक पीटने वाला लकीर का फ़कीर/
यही वजह थी कि अध्यक्ष जी जब भी संसद में बोलते थे तो सारी संसद उन्हें सुनती थी/ यह बात शायद अटल जी के साथ भी नहीं है क्यों कि उन्हें भाजपा का नेता माना जाता है जबकि चन्द्रशेखर अपनी पार्टी के अकेले सांसद होने के नाते निर्गुट किस्म के नेता हो गए थे/
मुझे याद पड़ता है टी.वी. पर सजीव प्रसारण के दौरान देखा था कि एक बार जब NDA सरकार के रक्षा मन्त्री जॉर्ज फ़र्नांडिस किसी मुद्दे पर आग उगल रहे थे और वामपन्थी दूसरे तरफ़ प्रतिरोध के स्वर में मुखर थे, तब संसद में अत्यन्त अप्रिय स्थिति पैदा हो गई थी/ तब चन्द्रशेखर ने बात सम्हाली थी/ ऐसे तमाम हालातों में चन्द्रशेखर उठते थे, संसद को समझाइश देते थे और बाकी संसद उनके द्वारा दी गई व्यवस्थाओं को मानती भी थी/ एक बार अध्यक्ष जी किसी सरकार के अविश्वास प्रस्ताव के मुद्दे पर बोल रहे थे इतने में कोई नए सांसद गणों ने कुछ कमेंट कर दिया/ अध्यक्ष जी ने तुरन्त कहा कि अब आप ही बोल लें मैं बैठा जाता हूँ/
जनता पार्टी के अध्यक्ष के नाते अध्यक्ष जी का सम्बोधन उनके साथ चस्पा हो गया/
मात्र ५० की उम्र में इतने बड़े गठबन्धन जैसे पार्टी का नेतृत्व चन्द्रशेखर के बस की ही बात थी/ एक पुस्तक पढ़ी है हिमाचल के पूर्व मुख्यमन्त्री शान्ताकुमार जी की/ उसमें वे कहते हैं चन्द्रशेखर पार्टी को टूट से बचाना चाहते थे मगर कोई उनकी सुनता ही नहीं था/ विशेषकर राजनारायण और मधु लिमये जैसे दिग्गज/
बहरहाल वह प्रयोग देश की राजनीति को एक अलग दिशा तो दे गया/ नए समीकरण बने और यह सिद्ध हुआ कि देश की सबसे बड़ी पार्टी को सत्ता से बेदखल भी किया जा सकता है/ उस दौर ने मुल्क को तमाम क्षेत्रीय क्षत्रप और राष्ट्रीय दिग्गज दिए/ उनमें से कई अब भी राजनीति में प्रासंगिक बने हुए हैं/
चन्द्रशेखर की बड़ी बात उनका देशज मिजाज़ और भारतीयता से जुड़ाव था/ वैश्वीकरण के मुद्दे पर वे आखिर तक असहमत रहे और झंडा बुलन्द किये रहे/ यह सब सिद्धान्तों के राजनीति करने वालों के आखिरी दस्ते के संसदीय सेनानी थे/
विरोध यानि कि खुला विरोध गुपचुप विरोध अध्यक्ष जी की फ़ितरत नहीं थी/ राजा मांडा के प्रधानमन्त्री बनते वक़्त भी चन्द्रशेखर ने विरोध किया और सहमति का लबादा नहीं ओढ़ा/ वी.पी.सिंह अपनी आत्मकथा “मन्ज़िल से ज़्यादा सफ़र” में इस बात का उल्लेख करते हैं कि चन्द्रशेखर संसदीय दल की बैठक से उठ कर चले गए थे/
एक कमज़ोर सी सरकार का मुखिया बहुत कुछ कर नहीं सकता और चन्द्रशेखर के साथ भी ऐसा ही हुआ/ उनके खाते में वित्तीय कुप्रबन्धन की शिकायतें हैं और उन्हीं के समय में हिन्दुस्तान का सोना विदेश में गिरवी रखा गया/ मगर उन्हीं के समय में कहा जाता है कि अयोध्या विवाद सुलझने के कगार पर पहुँच गया था/ महन्त रामचन्द्रदास, संघ और अन्य पक्षों के साथ बैठकर एक सामान्य सर्वानुमत रास्ता निकालने का पथ प्रशस्त हो रहा था मगर तब तक सरकार का पतन हो गया/ बड़े लोगॊ के बड़े खेल! अगर विवाद के हल वाली बात सही मानी जाए तो कभी कभी सोचता हूँ कि क्या इन दोनॊ घटनाओं के बीच कोई सहसम्बन्ध है? ये सब घटनाएं इतिहास के गर्त में खो जाती हैं/
अपने अन्तिम दिनों में अध्यक्ष जी को देखना एक शेर को तिल तिल कर मौत के तरफ़ बढ़ते हुए देखना था बीमारी से वे अत्यन्त कमज़ोर हो गए थे, मगर वे लड़ते रहे/ आगरा में मेरे एक मित्र हैं उनके मित्र के पिता अध्यक्ष जी के मिलने वालों में से हैं, वे बताते हैं कि जिस आदमी की दहाड़ ताउम्र आप सुनने के अभ्यस्त रहे हों उसे धीमे धीमे बोलते सुनना कारूणिक रूप से दुखद है/ कीमियोथेरेपी से भी अध्यक्ष जी ज़्यादा दिन नहीं चल सके/ मौत आनी ही थी/ बहुत लोगों के लिये चन्द्रशेखर का निधन एक पूर्व प्रधानमन्त्री का देहावसान है, बहुतों के लिए एक राजनेता का/ मगर मेरे लिए चन्द्रशेखर राजनीतिज्ञों की उस विरल होटि हुई नस्ल के आदमी थे जो मुल्क का दिल जानती थी/
आज हिन्दुस्तान के दिल को जानने वाले और आत्मा को पहचानने वाले कितने नेता बचे हैं? जो लोग समझने पहचानने का दावा करते हैं वे सिर्फ़ चुनाव जीतने को अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं/
किसी भी मुल्क का इतिहास बहुत बड़ा होता और हिन्दुस्तान जैसे मुल्कों का इतिहास तो अत्यन्त विस्तृत और गहन होता है/ मगर फ़िर भी कुछ लोगों का जीवन इतिहास के पत्थर पर लकीर खींच जाता है/ चन्द्रशेखर ने यह लकीर सत्ता के माध्यम से नहीं खींची इसलिए यह और अधिक महत्वपूर्ण और सम्मानित है/ उनके जीवन के कुछ साल ट्रेजरी बेन्च पर बैठने वाले छोड़ दें तो ताउम्र विपक्ष में बैठने वाले चन्द्रशेखर मूल्यों और आदर्शों की प्रतिबद्ध राजनीति के नाविक थे/
म्रूत्यु के पहले वे श्रद्धेय थे अब स्मरणीय हो गए हैं/

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जून 11, 2007 at 9:29 पूर्वाह्न (कुछ इधर की कुछ उधर की)

मौत दबे पाँव नहीं आती आजकल…गोलियाँ दाग़ते हुए आती है

लोग मर रहे हैं नन्दीग्राम हो या बस्तर का सुदूर बीजापुर/

भीड़ भड़क जाती है, पुलिस मज़बूर… भरभरा के दाग़ती है सतरें गोलियों की/

धाँय धाँय धू धू  धाँ….भीड़ मर रही है/

उन सबके राज्यों में, जो कहते हैं खुद को चाहे राष्ट्रवादी या मज़दूरों के अलम्बरदार

हज़ारों हज़ार लोग ढो चले हैं अपने मकान अपने सिरों पर, छोड़ रहे हैं ज़मीनें अधजुती

ताकि विकास हो सके देश का/ कुछ और खरब पति कर सकें नाम रोशन/

सारा मुल्क एक SEZ है?

आज चाँद सचमुच काला पड़ गया है. तारे दिखते हैं खूनी लाल

बस कुछ लोग मरे हैं शासकों के राज में

हुक्काम अलमस्त फ़्रेन्च वाइन के लुत्फ़ में गुम/

झण्डे उठा के जो पीछे चले थे, उन्हीं के ड्ण्डे बरस रहे हैं/

SEZ का नक्शा खिंचा सा जाता है लाल लाल लकीरों से/

धान के बोझे ढोने वाली पीठें हरहरा के गिर रही हैं एक के बाद एक/

नाम बदल जाते हैं/

सरकारें सिर्फ़ सरकार हैं कार्बन कॉपी एक दूसरे की/

शुक्रिया शुक्रिया शुक्रिया..

कि विकास के डैने फ़ैल रहे गाँव गाँव गली गली/

भीतर तक चौके की सिगड़ी तक विकास/

आलू के चोखे में भी विकास नज़र आएगा…बस थोड़ा देर और..

शाम की खबर “मारे गए पुलिस के लोग नक्सलियों के हाथ झुण्ड के झूण्ड”

मार्क्स कितनी बन्दूकें छिपा गए तुम बस्तर के गिरिकाननों में?

यहाँ भी लोग मर रहे हैं/ नई भर्तियाँ नई मौत का नैवेद्य हैं/

कागज़ काले हो रहे हैं व्यर्थ ही इधर धरती लाल/

देख रहे हैं सब चुप चुपचाप गुमसुम/

जो नहीं ख्वाहिशमन्द देखने के बन्द कर लें आँख अपनी

खेल लम्बा चलेगा/

ज्ञानी विद्वज्जन कहते हैं पोथियाँ खोल खोल…आँकड़ों के मज़बूत सबूतों के साथ/

हिन्दुस्तान के जाहिल ही नहीं चाहते विकास

तुम्हारा ही भला होगा मूर्खो

क्यों नहीं चाहते मिनिरल वाटर पीना

क्यों नहीं चाहते इन्स्टेन्ट कुक्ड फ़ुड

गँवार ही रहोगे बनाओगे आलू की भुजिया हाथों से/

नहीं समझते तो मरो/

विकास की कीमत अता करो/

हम बेखबर इससे सुबह की सुर्खियों को चाय में डुबो के पी रहे हैं

टैक्स प्लानिंग के आकर्षक उपाय” के टोस्ट के साथ/

मुद्दा अल सुबह की बहस का कि शेयर हैं प्रोफ़िटेबल या म्यूचुअल फ़ंड/

चलो नन्दीग्राम के बहाने खुल सा गया राज़

हिन्द भर में हो रही मौतें/

महामारी की मानिन्द बन्दूक का शासन/

नहीं जानता कि कीमत क्या है विकास की,

और कौन तय कर रहा है क्रेता विक्रेता इस खेल के/

बस देखता हूँ तो ये कि मेरा घर,

एक भट्टी की तरह दहक रहा है इस आँच से/

परमालिंक 1 टिप्पणी

लो एक और कारनामा

जून 6, 2007 at 6:46 अपराह्न (कुछ इधर की कुछ उधर की)

ताज़ा खबर ये है कि शिवसैना के बहादुरों ने जिनमें महिलाएँ भी शामिल थीं, मुम्बई की बार गर्ल्स को मारा पीटा/ उन्हें ५ दिन के भीतर घर छॊड़ के चले जाने को कहा गया है/ किस अधिकार के तहत! पता नहीं/ इनमें से कई बार गर्ल्स ऐसी हैं जिन्होंने पूँजी लगा के ये मकान खरीदे हैं/ अब उन्हें छोड़ने को कहा जा रहा है/

मैं नहीं जानता नैतिकता क्या है? समाज के नैतिकता के मानदंड क्या है? मगर एक सवाल ये है कि कब और कैसे शहर को स्वच्छ करने की महान ज़िम्मेदारी इन लोगों के काँधों पर आ गई/ मैं बार गर्ल्स के ऊपर कोई शोध कर चुका होऊँ ऐसा भी नहीं है/ पहले सरकार ने उन्हें मुम्बई को साफ़ बनाने की पहल करते हुए निकाला दिया अब ये भाई लोग/

एक सीधी बात तो ये लगती है कि कमज़ोर को सब दबा सकते हैं सो दबा रहे हैं/ बँगलादेशी घुसपैठियों को निकालने के लिये कोई तार्किक परिणिति वाला अभियान ये नहीं चला सकते/ अय्याश नशे की तिज़ारत का मरकज़ बनते जा रहे शहर को उस गिरफ़्त से आज़ाद कराने की ज़हमत नहीं उठाएंगे रेव पार्टीज़ में जाने वाले अय्याश लोगों के खिलाफ़ ये कुछ नहीं करेंगे/ ये समाज से भ्रष्टाचार हटाने के लिये जंग नहीं करेंगे/ ये मुम्बई को कचरा मुक्त कराने के लिये आगे नहीं आएंगे/ ये धारावी को बेहतर सुविधाएं नहीं देंगे/ ये कभी बिहारियों को पीटेंगे कभी बार गर्ल्स को भगा के शहर साफ़ करने की स्कीम चलाएंगे/

ये सिर्फ़ मवाद को नोचने का काम करेंगे इनके पास दृष्टि ही नहीं है बीमारी की तह तक जाने की/

आखिर मुम्बई में इतनी बड़ी संख्या में बार गर्ल्स क्यों है? क्या यह कोई पसन्दीदा व्यवसाय है? या एक विवशतापूर्ण अर्थोपार्जन? समझ नहीं सकता कि वैश्याओं या कहूँ कि आधुनिक बार गर्ल्स से सबसे ज़्यादा खतरा शरीफ़ लोगों को ही क्यों होता है?

शराफ़त की सारी ज़िम्मेदारी महिलाओं पर ही है/ उन्हें चाहिए कि वे पर्दे में रहें छुप के रहें ढक के रहें ताकि हम धर्मभीरु मर्दों की लार न टपकने लगे/ हमें अपनी शराफ़त पर विश्वास नहीं है? हाँ शायद इसीलिए/

यह कुछ ऐसी बात है कि कोई सुरा प्रेमी किसी दिन निकले और भट्टी वाले को पीटने लगे कि तु बनाता ही क्यूँ है जो मैं तेरे यहाँ रोज़ आ जाता हूँ/ कोई इससे इंकार नहीं करेगा कि बार गर्ल्स का काम कोई शान का काम नहीं है/ मगर ज़रा उनके ग्राहकों की लिस्ट पर भी तो नज़र घुमा ले श्रीमान/ उन लोगों को शहर से जाने को कौन कहेगा जिनके बूते ये कारोबार पनप रहा था और ये बार गर्ल्स अपनी रोज़ी कमा रही थीं?

महाराष्ट्र के आगामी चुनाव को देखते हुए शिवसेना और राज ठाकरे की नव निर्माण पार्टी में यह होड़ लगी हुई है कि कौन कितना तोड़-फ़ोड़ मार-पीट कर सकता है? उनको लगता है शायद वोटर्स इसी से प्रभावित होते हों/ क्यों इसे मराठी अस्मिता का नाम देते हो?

परमालिंक टिप्पणी करे

इसके आगे क्या?

जून 3, 2007 at 8:37 अपराह्न (विवक्षा)

यह लेख लिखते वक्त मैं न सिर्फ़ शर्मसार हूँ बल्कि उससे भी ज्यादा दुखी हूँ/ आप भी राजस्थान में हो रही घटनाओं के सन्दर्भ में निश्चित रूप से दुखी और क्षुब्ध होंगे/ यह वाकई शर्म की बात है, दुख की बात है और सबसे ज़्यादा हद दर्ज़े के राजनैतिक हरामीपन (क्षमा कीजिए मैं और विनम्र नहीं हो सकता) की मिसाल है कि शान्ति का जज़ीरा राजस्थान आग में जल रहा है/ समाज की जड़ता, मूढ़ता और जातिअन्धता के साथ ही सरकार के नाकारापन और निकम्मेपन की मिसाल है यह अराजकता/ लगता है कि सरकार और प्रशासन है ही नहीं/ राजस्थान जल रहा है अराजकता की आग में और लगता है कानून व्यवस्था बहाल करने में सरकार की दिलचस्पी है ही नहीं/ या हालात सम्हाले नही सम्हल रहे/
आरक्षण का सामाजिक सशक्तिकरण का औज़ार कैसे धारदार और हिंसक हथियार में तब्दील हो रहा है यह राजस्थान में साफ़ नज़र आ रहा है/ सब जानते हैं आरक्षण की शुरुआत समाजिक रूप से पिछड़े वर्गों के हितसाधन के लिये हुई थी बाद में यह खेल में नेताओं को कुछ ज़्यादा ही मज़ा आने लगा/ एक किस्म की सामाजिक रिश्वत एक जाति-विशेष को दो और बस ५ साल तक लूट-खसोट का लाइसेन्स प्राप्त कर लो/
सवाल ये भी है कि क्या ये सब स्वतःस्फ़ूर्त है या कोई और पर्दे के पीछे से कठपुतलियाँ नचा रहा है. क्योंकि इतने बड़े पैमाने पर खिँचता हुआ संघर्ष, ये उन्मादी तेवर कुछ और ही इंगित करते हैं/
जातिगत संघर्ष न केवल अत्यन्त हिंसक और अराजक हो गया है बल्कि विद्रोह के स्तर तक पहुँच गया मालूम होता है/ यह सिर्फ़ अपने ही मुल्क में होता है कि हम गुस्सा उतारने ले लिये अपने ही बसें जला डालते है/ अपने ही साथी नागरिकों की सम्पत्ति पर हमला कर देते हैं/ अन्य नागरिकों को तकरीबन बन्धक सा बना लेते हैं और इस सबके बाद अपने ही शहर या राज्य को आग की लपटों में झोंक देते हैं/ मॉब मानसिकता का विचार-धर्म नहीं होता/ यह भीड़ गाड़रों के रेवड़ की तरह हाँकी जाती है/ समझदार आदमी का दिमाग भी काम करना बन्द कर देता है या फ़िर उसकी बात सुनी ही नहीं जाती/
राजनैतिक मोर्चे पर देखें तो शुरू के दिनों तक किसी ने गम्भीरता भाँपी ही नहीं/ फ़िर जब होश आया कि बाज़ी हाथ से निकल रही है तब प्रयास शुरू हुए बात-चीत के और समझौते के/
दौसा से सांसद सचिन पायलट साह्ब ने दिल्ली में भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिह से मिलने के बाद बयान जारी किया कि “सारा हिन्दुस्तान का गुर्जर समाज राजस्थान के गुर्जरों की माँग का समर्थन करता है” मगर उन्होंने इस बेशर्म ताण्डव और उपद्रव को रोकने के लिये क्या किया?

इधर वसुन्धरा जी ३-४ दिन तो जनता से नाराज़ रहीं कोई बयान नहीं कोई बात नहीं…जाओ हम तुमसे बात नही करते/ हम महारानी हैं तुम प्रजा/ हमारी मर्ज़ी थी हमने कह दिया कि आरक्षण देंगे अब नहीं है मर्ज़ी/ सोनिया गाँधी के बयानों की खिल्ली उड़ाने वाली भाजपा की यह नेत्री बयान ऐसे देती हैं जैसे किताब पढ़ रही हों/ अगर आपको याद हो तो ये ही थी जो राजस्थान मे पानी की टंकी के ध्वस्त हो जाने से लोगों की मृत्यु की घटना पर हँस पड़ी थीं.. शायद अब वे ठहाके मार रही होंगी/
पहला सवाल ये है क्यों मुख्यमन्त्री ने यह वादा किया था कि गुर्जरों को अनुसूचित जनजाति में शामिल कर दिया जाएगा? सिर्फ़ टुच्चे राजनीतिक लाभॊं के लिये? इस माँग के बाद सरकारी नौकरियों में अपने हिस्से को लेकर खतरा लगा मीणा समाज को क्योंकि राजस्थाने में अनुसूचित जनजातियों को मिलने वाली अधिकतर सुविधाएं इसी वर्ग तक सीमित हैं/
जातीय भेद हिन्दुस्तान मे हमेशा रहे हैं मगर इस दफ़ा यह अत्यन्त हिंसक, विध्वंसक और दीर्घकालिक प्रभावों वाला है. सवाल ये भी है कि क्या सिर्फ़ गुर्जर और मीणा समुदाय ही मुल्क में पिछड़े हैं? यहाँ सैकड़ों समुदाय हैं …विड्म्बना ये हो गयी है कि लोग अच्छे सुविधाओं और शिक्षा की माँग नही करते सिर्फ़ आरक्षण की माँग करते हैं/
आखिर कौन है वे लोग जो इस आक्रोश की आग को हवा दे रहे हैं ..ऐसे माहौल में जाति के स्वयम्भू नेताओं की चाँदी हो गई है/ सौदेबाज़ी के खेल में ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा पा सकें इसलिये दोनों जातियों के नेता नही चाह रहे कि ये आग बुझे/ या हो सकता है इसे बुझाना उनके बस में ही न हो/
एक कोई कर्नल साब हैं जो गुर्जरों के नेता बन के मुख्यमन्त्री से बात कर रहे हैं …याद रखिये सबसे ज़्यादा बदमाश नेता वॉलेटाइल माहौल में ही अपनी जगह बनाते हैं और खुद के लिये सबसे ज्यादा मलाई का हिस्सा सुरक्षित कर लेते हैं.
स्थिति यहाँ तक बिगड़ी कैसे? क्यों गुर्जरों ने ताण्डव शुरू किया और कौन लोग थे जिन्होंने मीणा समुदाय को प्रतिक्रियात्मक हिंसा शुरू करने की सलाह दी?
सवाल ये भी है कि कौन हैं इस उन्मादित भीड़ के नेता? दोनों तरफ़ की इस भीड़ का नेतृत्व समझदारों के हाथ में तो नहीं ही है बल्कि जाति की संकुचित मानसिकता से ग्रस्त लोगों के हाथों में है जो लोग सिर्फ़ जाति के चश्मे से देख सकते हैं/ क्योंकि ये ही उनके हित में है/
यह उपद्रव हमारे सामने एक और प्रश्न रखता है/ क्या निरी गुण्डागिर्दी से माँगें मनवाई जाएंगी? आगजनी, तोड़फ़ोड़ और लूट-खसोट का माहौल/ यह सीधे सीधे गुण्डागिर्दी है. यह बिल्कुल फ़िरौती माँगने जैसा काम है
यह धार्मिक खाई से भी बड़ी एक खाई पैदा हो रही है समाज में.हिन्दुस्तान जातियों में अगर बँटा तो इसके ६४०० टुकड़े हो जाऎंगे..कोई अचरज वाली बात नहीं कल तक धर्म के नाम पर दंगे होते रहे अब उसमें एक नया डायमेन्शन जातीय दंगों का जुड़ जाएगा/ हिन्दुस्तान को जातियों में मत बाँटिये नहीं तो इसके टुकड़े खुर्दबीन से भी नज़र नहीं आएंगे/
सच में यह बहुत क्षोभ, दुःख और शर्म की बात है हम बात में नहीं लात में विश्वास करने लगे हैं/
कहाँ हैं वे महान सांसद और नेता गण जो जनता की नब्ज़ पकड़ने का दावा करते हैं क्यों नहीं समझाया जा रहा है दोनों पक्षों को…
अपनी रोटियाँ सेकने के लिये इस आग को हवा मत दीजिये ये आग घर जला कर राख कर देगी/
क्या कर लेगा कोई अगर कल कोई दूसरी जात इसी तरह के हिंसक आन्दो लन पर उतर आती है… भीड़ तर्कों से शान्त नहीं होती..उसकी मानसिकता अलग ही होती है/ यह ध्रुवीकरण अच्छे भले आदमी को जातिवादी दृष्टिकोण से सोचना सिखाया किन्होंने? इन्हीं पाखण्डी राजनीतिक नेताओं ने/
शर्म की बात ये है कि पर्यटक फ़ँसे हैं राजस्थान में जिनमें विदेशी पर्यटक भी हैं जो राजस्थान की संस्कृति को, इतिहास और कला को देखने, उसका आस्वादन करने आते हैं वे सब रास्तों में फ़ँस हुए हैं.  वैसे तो मुल्क की छवि की चिन्ता कोई करता नहीं है मगर ज़रा सोचिये फ़िर भी/ क्या छवि मुल्क की बनी? कुछ यूँ कि हिन्द्स्तान भी युगाण्डा और सोमालिया जैसा एक मुल्क है जहाँ कभी भी अराजकता फ़ैल सकती है, कभी भी कानून का राज खत्म हो सकता है और कभी भी गुण्डा तत्व प्रशासन ध्वस्त कर सकते हैं/
यह फ़साद हमारे सामने सवाल खड़े कर रहा है और चेतावनी भी दे रहा है/ आगे के लिये सचेत कर रहा है/

कल के दिन यदि ठाकुर या ब्राह्मण निकल पड़ें सड़कों पर और बिल्कुल इसी तरीके से विध्वन्स और उपद्रव पर उतारू हो जाएं तो क्या कर लेंगी हमारी सरकारें और प्रशासन/ क्या सरकारें, राज्य, प्रशासन और इस पूरे देश को  ऐसे बन्धक बनाने की अनुमति दी जा सकती है? 

डर ये नहीं कि मौत आ गई बल्कि ये है कि यमराज ने घर देख लिया/ कल अगर जाट कहते हैं कि हमको जनजाति में शामिल करो तो क्या तर्क देंगे आप और क्या वे तर्क सुनेंगे? मानेंगे? अगले विधानसभा चुनाव पास ही हैं और मौज़ूदा हालात में विपक्षी दल इस बवण्डर से अधिकतम मुनाफ़ा पाने के बारे में सोच रहे होंगे और शासक दल इस से होने वाले घाटॆ से निबटने की रणनीति बना रहा होगा/ शायद किसी दूसरे जाति को आरक्षण देने की बात कह के या ऐसा ही कुछ और चारा डालने के बारे में/
लेकिन है ही ऐसा कि जैसा बो‍ओगे वैसा काटोगे/ आखिर क्यों चुनाव के दौरान सामाजिक रिश्वतें दी जाती हैं/ भ्रष्टाचार को मिटाने का दावा करने वाली पार्टियाँ जब मुफ़्त साड़ी, मुफ़्त बिजली और बेरोजगारी भत्ते दे के फ़िर से सत्ता में लौटाने का निवेदन करती है तो क्या यह व्यवहार सामाजिक भ्रष्टाचार की परिधि में नहीं आता?

“फलाँ जाति को आरक्षण दे दिया जाएगा… नवयुवकों को बेरोज़गारी भत्ता दिया जाएगा/ महिलाओं को साड़ी बाँटी जाएगी/ चाँद देखने घर से बाहर नहीं निकलना पड़ेगा हम तुम्हारे घर के जीने पे उसे रख देंगे/” बस तुम हमें वोट दो/ बस तुम साड़ी, साइकिल , १०००-५००  रुपये बस इतने में ही खुश हो लो और हमें बेखटके लूट-खसोट का अधिकार दे दो// वोट डालो और अपने घर बैठ जाओ/ हम तुम्हारे ऊपर शासन करेंगे और सत्ता की मलाई को चाटते रहेंगे खजाने को खोखला करते रहेंगे/ तुम हमें वोट नहीं दोगे तो किसी और को दोगे वो भी हमारा भाई है/
और यहीं सवाल उठता है कि क्यों कोई पार्टी ऐसे वादे करती है जो वह  पूरे नहीं कर सकती / क्यों सम्वैधानिक कामों को गैर सम्वैधानिक तरीके से करने की हामी भर दी जाती है और फ़िर जब बोतल से जिन्न बाहर आ जाता है तो सम्हालने में नानी याद आ जाती है/
इस हंगामें में कई जानें जा चुकी हैं, तमाम सूबे में अफ़रा-तफ़री मची है और आग की लपटें पड़ौसी सूबों तक फ़ैल रही हैं/ न सिर्फ़ सूबे की बल्कि मुल्क की बदनामी हो रही है..करोड़ों की सम्पत्ति का नुकसान हो रहा है/ मगर छॊड़ो जनाब किसको पड़ी है/
कहीं ये संघर्ष आने वाले दिनों के समाज की तस्वीर तो नहीं
“यह सपना मैं कहों विचारी! हुइहै सत्य गये दिन चारी/”

चलते चलते एक बात और शिवसैनिकों ने मुम्बई में साइबर कैफ़े में तोड़-फ़ोड़ की…वजह ये थी कि साइबर कैफ़े में नेट होता है/ नेट पर लोग वेबसाइट खोलते हैं/ दुनिया की करोडों वेबसाइट्स में से एक है ओर्कुट जो कि काफ़ी प्रचलित है फ़िलहाल/ इस ओर्कुट के कई लाख सदस्य हैं और उन कई लाख में से कुछ सद्स्यों ने शिवाजी महाराज के बारे में कुछ आपत्तिजनक लिख दिया/ सहज बात है कि शिवसैनिकों के पास इतना समय और अवकाश तो होता नहीं कि नेट पर जरा वास्तविकता परखें/

किसी ने कहा कौआ कान ले गया तो बस दौड़ पड़े कौए के पीछे/ कान देखने की ज़हमत कौन उठाए? चलो मान भी लेता हूँ कि शिवाजी महाराज के बारे मे कुछ आपत्तिजनक लिख दिया था तो भाई उस आदमी को पकड़ते एक लाठी में तो उसका सब शारीरिक भूगोल इतिहास में बदल जाता/ मगर दौड़ पड़े तमाम साइबर कैफ़ेज़ में तोड़-फ़ोड़ करने के लिये/

शिवाजी महाराज का कुछ बनने बिगड़ने वाला नहीं है और याद रखियेगा उन्होंने राज्य बनाया था/ इतिहास में बहुत कम लोग हुए हैं जिन्होंने राज्य का निर्माण किया हो/ वह भी शून्य से उठकर/ उनका नाम बदनाम न करो/

भाई सब लोग सावधान हो जाओ ओर्कुट से अपने अकाउन्ट हटा लो नहीं तो भाई लोग मारने आ जाएंगे/
य घटनाएँ अलग-अलग हैं मगर एक ही चीज़ की ओर संकेत करती हैं वो है कि मुल्क में अराजकता बढ़ रही है/

कभी भी कहीं भी कुछ भी/
जानता हूँ लिखने से क्या होगा? कुछ नहीं/ कोई शान्ति की क्रान्ति नहीं आ जाएगी/ भड़के हुए शोलों पर पानी नहीं पड़ जाएगा मगर यह भी एक तरीका है विरोध का…मैं कम से कम इसका इस्तेमाल तो करूँ/
हिन्दुस्तान क्या तोप के दहाने पर आ खड़ा हुआ है?

परमालिंक 5 टिप्पणियां

मई 28, 2007 at 5:40 पूर्वाह्न (विवक्षा)

प्रश्न रह जाते हैं अनुत्तरित ही
जो मैने पूछे थे तुमसे
जिनका जवाब मैं जानना चाहता था तुमसे बिना किसी लाग-लपेट के
या तुम मुझसे/
बिना मिश्री की डली में लिपटे
नीम की निबौरी की तरह जिनका हो स्वाद
उन सब सवालों पर पूछते ही पाश बाँध दिये जाते हैं
तर्क के भाषा के, और व्यंजना के
प्रश्न के ढाँचे पर होने लगती है बौद्धिक समीक्षा और बहसें/
ये पूछा सही पूछा मगर ऐसे क्यूँ वैसे क्यूँ?
प्रतिप्रश्न शुरू होते हैं मन्तव्यों पर?
किसने चढ़ाया था तुम्हें पूछने को प्रश्न?
किससे प्ररित थे सवाल?
सवाल इतना ही क्यों उतना क्यों नहीं?
सवाल में पात्र अमुक अमुक ही क्यों फ़लाँ फ़लाँ क्यों नहीं?
और असल बात कहो क्या थे हित निहित सवालकर्ता के?
ढेर ढेर वैचारिक तर्काभासों और उलझनों में सिकुड़ जाते हैं सवाल/
हम फ़िर उलझ जाते हैं बेसिरे की अन्तहीन बहसों में और
और असल चीज़ रह जाती है फ़िर से बेजवाब..
या ऐसे तो नहीं कहीं कि जवाब हो ही नहीं हमारे पास
और ये सिर्फ़ एक तरीका हो सवाल के तरीके पे उलझा के बच निकलने का/

परमालिंक 3 टिप्पणियां

बाइ कास्ट क्या हैं आप?

मई 26, 2007 at 4:14 पूर्वाह्न (कुछ इधर की कुछ उधर की)

कुछ दिन हुए केरल के एक प्रख्यात मन्दिर में एक केन्द्रीय मन्त्री के आगमन के उपरान्त मन्दिर को धोया गया पवित्र किया गया/ तर्क यह दिया गया कि चूँकि मन्त्री महोदय की पत्नी ईसाई हैं इसलिए वे और उनकी सन्तानें अपवित्र हैं/ मन्त्री महोदय ने बाद में कहा कि इस प्रकार से तो मेरी सन्तानें और वन्शज कभी किसी मन्दिर में जा ही नहीं पाएंगे/

ऐसी कोई पहली घटना हो ऐसा नहीं है इसके पहले भी कई बार इस प्रकार की घटनाएँ विशेषकर दक्षिण भारत के मन्दिरों में हुई हैं/ एक तरफ़ तो हिन्दू धर्म अपने को विस्तृत और उदार होने का दावा करता है और वास्तव में ऐसा बहुत हद तक है भी कम से कम उपनिषद्‌ और वेद तो ऐसा कहते ही हैं और दूसरी तरफ़ जब आचार क्रिया की बात आती है तब बिल्कुल उल्टा हो जाता है/ ब्रहम सत्यं जगन्मिथ्या का नारा बुलन्द करने वाले लोग खूब माया जोड़ने में लगे रहते हैं/

बहरहाल ऐसी घटनाओं के बाद किसी आदमी का स्वाभिमान शायद उसे विवश करेगा कि वो अपना धर्म बदल ले/ तब फ़िर हिन्दुत्व के ध्वजवाहक खूब शोर मचाएंगे/ हम धर्मान्तरण पर तो खूब बहस करते हैं और हल्ला करते हैं मगर उन दलितों और जनजातीय लोगों के लिए मन्दिरों के दरवाज़े खोलने में अब भी आनाकानी करते हैं, जो सैकड़ों सालों से हिन्दू धर्म की ध्वजा घने जंगलों और पहाड़ी इलाकों में फ़हराते चले आ रहे हैं/ कभी कभी मैं सोचता हूँ कि अगर ईसाई मिशनरी दवाई की गोलियाँ बाँटकर लोगों को क्रिश्चियन बना लेते हैं तो उसमें क्या बुराई है/ हमने तो उन्हें इतनी भी सहूलियत मुहैया नहीं कराई/

हालाँकि मैं जानता हूँ धोखे से या बलात धर्मान्तरण निश्चित रूप से कोई श्लाघ्य कर्म नहीं है मगर क्या हिन्दू धर्म में बने रहने की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ उन्हीं की या फ़िर धर्मध्वजियों और विद्वानों की भी है/ हमने सिर्फ़ जाति विशेष को वन्चित रखा हो ऐसा नहीं है/ आबादी की आधी हिस्से महिलाओं के साथ भी ऐसा ही हुआ है/ उज्जैन के महाकालेश्वर की भस्म आरती में महिलाओं को शामिल होने की अनुमति नहीं है/ कई सारे देवी देवता ऐसे हैं जो महिलाओं के छूने से अपवित्र हो जाते हैं फ़िर दलित और गैर हिन्दुओं की बात ही क्या/ ज़रा हिन्दू धर्म की पुनुरुत्थान वाले भाई लोग बताएंगे क्या कि आखिर कौन सा एजेन्डा हिन्दुत्व का पुनुरुत्थान कर सकता है?

हम यह तो चाहते हैं कि सब हिन्दू धर्म का सम्मान करें इसमें कोई आपत्ति है भी नहीं मगर जब भी सड़े-गले मवाद को कोई मसकता है तो बहुतों को दर्द होता है/ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने अपने प्रख्यात पुस्तक “कबीर” में लिखा है कि हिन्दुओं पर जब निरन्तर आक्रमण होते रहे तब उन्होंने अपने आप को एक सीमित दायरे में संकुचित रखने को अपना धर्म मान लिया/ इस की वजह यह रही कि उनके पास शायद उस समय और कोई विकल्प रहे ही नहीं होंगे/ मुझे छुओ मत वाली नीति अपना के रखने के सामाजिक और आर्थिक परिणाम अभी तक भुगतने पड़ रहे हैं/

चन्द्रधर शर्मा गुलेरी जी भी अपने प्रख्यात निबन्ध “कछुआ धर्म” में यही बात कहते हैं कि हमारा धर्म कछुए के समान है जरा कुच हुआ नहीं कि खोल में सरक गए फ़िर जै राम जी की दुनिया में कुछ हुआ करे/ अपन ब्रह्म और माया के चिन्तन में व्यस्त/

मुझे प्रायः ऐसा लगता है कि हमारे धर्म में ढोंग बहुत है/ अब भई कोई मुझे लाठी ले के न दौड़ पड़ना कि तुमने हिन्दू धर्म के बारे में ऐसा कहने की हिम्मत कैसे की/ दूसरे धर्म के बारे में कह के बताते हिम्मत है तो/

तो उन लोगों का जवाब किसी दिन विस्तार से लिखूँगा अभी इतना कह दूँ कि जिस धर्म को मैने देखा समझा और जाना है उसी के बारे में तो लिख सकता हूँ/ आदमी अपने परिवार के बारे में ही लिख सकता है न कि पड़ोसियों के बारे में/ ढोंग इस मायने में कि पानी छान के पीने वाले लोग बेईमानी करने में ज़रा कोताही नहीं करते /गरीब को पटखनी देते रहने में हम ज़रा भी कमी नहीं करते/ ऐसे एकाध नहीं सैकड़ों उदाहरण हैं जिन पर विस्तृत चर्चा की जा सकती है/

उपनिषद्‌ तो कहते हैं त्वं हि स्त्री त्वं हि पुमो॓ऽसि यानि कि तुम ही स्त्रि हो और तुम ही पुरुष/ आदि शंकराचार्य महाराज भी ऐसा ही कुछ कहते हैं अपने निर्वाण षटक्‌ में- “मनोऽबुद्धिऽहंकार चित्तानि नाहम्‌ चिदानन्द रूपं शिवोऽहम्‌ शिवोऽहम्‌” इसी में आगे कहा गया है कि “न मे राग द्वेषो न मे जाति भेदः” न मुझे राग है न द्वेष न जातिभेद/ मगर हम करेंगे ऐसा ही कि जब ट्रेन में कोई आदमी मिलता है तो उससे पूचे बिना रहा ही नहीं जाता कि भाई कौन ठाकुर हो या थोड़ा पढा लिखा आदमी हुआ तो पूछता है “बाइ कास्ट क्या हैं आप?” ये काल्पनिक उदाहरण सुने सुनाये नहीं दे रहा हूं बल्कि ये सब घटित हुए हैं मेरे साथ/ हममें से बहुतॊ ने इस अनुभव को सहा होगा/

यहाँ कोई दलित विमर्श का नाटक अपन नहीं करने जा रहे/ सीधी बात सीधे लफ़्ज़ों में/ अभी कुछ दिन पहले मैं एक टूर पर था तो साथ के सज्जन ने आखिर कार पूछ ही लिया आप बाइ कास्ट क्या हैं? हो सकता है ये प्रश्न शायद यु.पी.एस.सी. के पेपर में आने वाला हो और उनका कोई दूसरा मन्तव्य न रहा हो/ मगर मैं ऐसे प्रश्नों का उत्तर देने में बड़ा अचकचाता हूँ इसलिये नहीं कि मैं किसी कथित नीची या ऊँची जाति से ताल्लुक रखता हूँ बल्कि इसलिए कि यह प्रश्न बहुत ही भौंडा मुझे लगता है/

खैर यह हमारी कथनी और करनी का अन्तर है/ इसमें ज़्यादा क्या बोलूँ/ हमारे इलाकों में आज भी चमार-भंगी एक गाली के तौर पर इस्तेमाल होती आ रही है हमारे सामाजिक परिवेश में? एक घटना याद आ रही है/ हुआ यूँ कि मेरे ओफ़िस के कम्प्यूटर ऑपरेटर से कुछ बात चलते चलते बात जाति के मुद्दों पर आगई/ उसने कहा कि हमारे पूर्वज जो नियम बना गये वे बेवकूफ़ थोड़े ही थे/ हमको उन नियमों को बदलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए/ यह तर्क प्रायः वे सब लोग दिया करते हैं जिनके पास खुद के विचार नहीं होते/ मेरे द्वारा इस तर्क का प्रतितर्क दिये जाने पर उसने कहा सर आप कौन सी कास्ट के हैं तब मैं आपसे और ज़्यादा इस मुद्दे पर चर्चा कर सकता हूँ? मैंने कहा फ़िर हमें इस मुद्दे पर चर्चा बन्द कर देनी चाहिए/

बहुत बार लोगों को मैने यह भी कहते सुना है कि हम तो कोई फ़रक नहीं करते मानो उन्हें फ़र्क करने का ईश्वर-प्रदत्त अधिकार प्राप्त हो और इस अधिकार का इस्तेमाल न करके वे कोई एहसान कर रहे हों/ ौनको ऐसा कहते कई बार सुना है कि हम तो दलितों के साथ बैठ के खाना खा लेते हैं/ कुछ लोग बड़े गर्व के साथ ये भी कह्ते हैं कि हमारे घर में अगर पता चल जाए कि हम चमार के साथ बैठे थे तो हमको घर वाले नहलवा दें / इन सब बयानों और बातों में जो underlying assumption है वो ये कि हम दलित के साथ खाना खा के उनपर एहसान कर रहे हैं/ उन पर उपकार कर रहे हैं/ बहरहाल हिन्दुओं ही नहीं तमाम दूसरे धर्म वालों के सामने भी कमोबेश यह जाति प्रथा की समस्या है/ मगर हमारे हिन्दू धर्म में यह कुछ ज़्यादा ही भयावह है/

सवाल ये है क्या एक जातिविहीन समाज का सपना साकार करना सम्भव है? क्या जाति हमारे सामाजिक परिवेश में एक निल फ़ैक्टर बनाई जा सकती है?

परमालिंक 8 टिप्पणियां

चिन्ता की चिन्ता

मई 23, 2007 at 12:01 अपराह्न (विवक्षा)

मेरा पसन्दीदा काम है तरह तरह के मुद्दों पर चिन्ता व्यक्त करना.. इससे और कुछ हो न हो महानता का आभास ज़रूर होता है और समाज के लिए कुछ कुछ करने की फ़ोकटिया सन्तुष्टि भी मिलती है/

अलग अलग समय अलग अलग प्रकार की चिन्ताओं के लिए नियत हैं जैसे सुबह कूड़े से उत्पन्न होने वाले प्रदूषण पर और दोपहर राजनीतिक चिन्ताओं देश में बढ़ रहे भ्रष्टाचार आदि आदि सार्वभौमिक और सर्वकालिक चिन्ताओं के लिए नियत हैं/ एक और पसन्दीदा विषय है ग्लोबलीकरण और प्राइवेटीकरण से बढ़ता असन्तुलन (यह चिन्ता तब ज़्यादा करता हूँ जब किसी मॉल में शॉपिंग करने जाता हूँ)/ दोस्त कहते हैं नए कपड़े और पर्फ़्यूम्स लेते वक़्त ये चिन्ता आपके चेहरे पर खूब छजती है/

चिन्ता कर देने के बाद उस विषय को एक छींके पे टाँग देता हूँ ताकि वक्त ज़रूरत पे काम आए/ वैसे इस से मेरा फ़ायदा बहुत हुआ है/ कॉलेज में जब हम पढ़ते थे तो मौके-बेमौके चिन्ता प्रदर्शन की वजह से ही हमको भाषण-वाद विवाद किस्म के निहायत बोर(श्रोताओं के लिए) कामों में कालेज का प्रतिनिधित्व करने के लिए भेज दिया जाता था/ मन्च पर भी इसने मेरा साथ खूब निभाया/ अगर मेरे पास विपक्षी को प्रतिरोध के तर्क नहीं होते तो मैं कह दिया करता था कि मेरी भी चिन्ता है यही है वगेरह वगेरह (चित भी मेरी पट भी मेरी) इससे क्या होता था कि दोनों तरफ़ के मुद्दों पर चिन्ता व्यक्त कर दिया करता था और दोनों तरफ़ के तर्कों का इस्तेमाल कर लिया करता था/ ये दो नाव पर सवारी या कम से कम छूते हुए चलने का काम बड़ा फ़ायदेमन्द होता है/ प्रबन्धन की पढ़ाई के दौरान हमारे एक प्रोफ़ेसर साब जब भी लड़कों के जाल में फ़सते तो हमेशा कहने लगते थे “its not ‘either-or’ its ‘and-also’.”और हम उनके बौद्धिक आतंक से पीड़ित छात्र गदगद मुद्रा में आ जाते थे /
वैसे ये सिर्फ़ मेरा नहीं बल्कि ज़्यादातर महानुभावों और बौद्धिकों का काम है. बहुत बार ऐसा होता है कि चिन्ता न करो तो ऐसा लगता है कुछ खास काम अधूरा छूट गया..ईमानदारी से कहूँ तो ऐसा लगता है कि कब्ज़ की बीमारी की वजह से नित्यकर्म ठीक नहीं हुआ इस तरह का मुँह बन जाता है..

चिन्ता करने का सबसे बड़ा पहलू यह है कि जो आप सोचना चाह रहे है या जैसा सोचते हुए दिखना चाहते हैं उस तरीके की शक्लें आपको बनानी आनी चाहिए वरना यह काम गैर ज़िम्मेदाराना चिन्तन की केटेगरी में आ जाता है.. दूसरा महत्वपूर्ण फ़ैक्टर है कि आप को सिर्फ़ चिन्ता व्यक्त करनी है उन मुद्दों का समाधान कतई नहीं प्रस्तुत करना यहाँ तक कि उस दिशा में सोचने की भी मनाही है.. अगर आप समाधान करने पे उतारू हो गये तो फ़िर दूसरे दिन चिन्ता किस बात पर होगी? इसके अलावा एक चीज़ और है कि आप को विभिन्न मुद्दों पर चिन्ता व्यक्त करनी है उन मुद्दो से आपका सहमत असहमत होना एक्दम अलग चीज़ है..बिना किसी तरह की राय बनाए हुए आपको निष्पक्ष भाव से चिन्तित होते रहना चाहिए/

आप देश में बढ़ती हुई महगाई पर भी चिन्तित हो सकते है और देश की बढ़ती हुई विकास दर पर भी/ आप किसानों की आत्महत्या पर एक समय में चिन्तित हो सकते है और आपके शहर में मॉल के न होने पर उतनी ही सहजता से चिन्तित हो सकते हैं/ शहर में बढ़ रही कुत्तों की आबादी से रैबीज़ के खतरे पर शाम को चिन्ता व्यक्त की जा सकती है और सुबह उनके मारने से उत्पन्न होने वाली जैव-विविधता के संकट पर/.. कुल जमा बात ये कि चिन्तित होने के लिए कोई भी मुद्दा हो सकता है/ और याद रखिए कि ये मुद्दे ज़रूरी नहीं कि आपस में संबन्धित हों/
शाम को जब मैं सोता हूँ तो इस तरह का भाव चेहरे पर बार -बार आ जाता है कि हे मूढ़ समाज, ऐ एहसानफ़रामोश मुल्क़ ज़रा देखो तो सही मैने तेरे लिये इतनी चिन्ता की/ पूरा दिन दिन भर अपनी चिन्ताओं से दूसरों को अवगत कराता रहा/ लेकिन मुझे क्या मिला? मेरे घर में ए.सी.तक नहीं लगवाया तुम लोगों ने/ फ़िर मैं अपने कोटे की आखिरी चिन्ता करने के बाद टिटहरी जैसे टाँग उठा के सो जाता हूँ और सोते सोते सोचता हूँ कि देखो अच्छा हुआ आज इतनी चिन्ता कर ली वरना दुनिया का क्या होता?

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लोकभाषाओं के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न

मई 10, 2007 at 8:56 पूर्वाह्न (विवक्षा)

भाषा सम्बन्धी चिन्ता और चिन्तन आजकल एक पुरातन सोच का प्रतीक है..ग्लोबलाइज़ेशन के दौर में इस प्रकार की चर्चा गैर-सामयिक और अप्रासंगिक मानी जा रही है/ नहीं जानता कि क्यूँ?

भाषा सम्बन्धी चिन्ताओं से किसी को अवगत कराओ तो वे कहते हैं क्या गैर प्रोडक्टिव सोचते रहते हो..कोई कहता है यार आज मार्केट इतना चढ़ गया तुमको भाषा की चिन्ता सता रही है/

ये चिन्ताएँ काफ़ी बार व्यक्त की गई है और कतिपय बार इसका संज्ञान भी लिया गया है/ मगर समस्या यह है कि यह खबर न तो फ़ौरी तौर पर सरसरी पैदा करती है न ही कोई जिज्ञासुकीय उत्तेजना का महौल बनाती है/ सब कुछ ठीक चलता रहता है सिवाय इस डर के कि अगर हम शतायु हुए तो शायद अपनी भाषाओं में बात करने के लिये भी तरस जाएं..

खबर ये है कि दुनियाँ की आधी से ज़्यादा भाषाएँ अगले १०० सालों में लुप्त हो जाएंगी/ हालाँकि यह ऐसा पहला समाचार नहीं है…इसके पहले भी कई बार इसके मुतल्लिक़ खबरें शाया हो चुकी हैं/ यूनाइटेड नेशन्स ने भी अपना एक वर्ष भाषाओं को समर्पित किया था/ मगर इतनी बड़ी संस्था के अपना पूरा एक साल दे देने के बावज़ूद कम्बख्त भाषाओं की दरिद्रता में कोई परिवर्तन हुआ नहीं.

बहरहाल इस लेख के मूल में चिन्ता का मुद्दा ये तो नही ही है कि हिन्दी बचेगी या नहीं (जैसा कि प्रायः लोग सोचने लगते हैं, जब भी भाषा सम्बन्धी चर्चाएँ शुरू होती हैं) मेरा पुरा विश्वास है और यह विश्वास भावुकता पर नहीं बल्कि खरे आँकड़ों पर आधारित है, कि हिन्दी न सिर्फ़ बचेगी बल्कि बढ़ेगी भी/

इस खबर में जो महत्वपूर्ण बात है वह ये कि खतरे का इंगित सिर्फ़ बहुत छोटी भाषाएँ ही नहीं बल्कि विशालतर पैमाने पर फ़ैली हुई भाषाएँ भी हैं जिनका क्षेत्र घटने की सम्भाव्यता व्यक्त की गई है/ बहरहाल मैं समझता हूँ कि फ़िक़्र का सबसे बड़ा सबब ये है कि हमारी बोलियाँ बचेंगी या नहीं यह स्पष्ट रूप से उल्लेखित नहीं था उस समाचार में कि उन्होंने बोलियों को (परिभाषानुसार जिनकी खुद की लिपि न हो बल्कि वे सिर्फ़ बोली जातीं हों) भाषा माना है या नहीं, अन्यथा आँकड़े और डरावने हो सकते हैं/

भाषा की वाचिक परम्परा एक सामाजिक ही नहीं बल्कि आर्थिक क्रियोत्पाद (फ़ंक्शन) भी है/ इसको एक छोटे उदाहरण से स्पष्ट करने का प्रयास करता हूँ – जब तक व्यक्ति अपने खेत खलिहान से जुड़ा होता है, उच्चतर परिधियों में नहीं आता है, वह अपनी लोकभाषा या बोली बोलता है/ जैसे ही उसका अपग्रेडेशन होता है आर्थिक स्तर वह सामाजिक स्तर में भी उत्तरोत्तर प्रगति करता है और क्रमिक ढंग से अपने से श्रेष्ठतर समझे जाने वाले समुदाय की भाषा, संस्कृति, कला, रीति-रिवाज़ सब में उच्चतर समुदायों का अनुसरण करने का प्रयास शुरू कर देता है/

भाषिक परिवर्तन और बोली के भाषा में संक्रमण की शुरुआत यहीं से होती है/ वह व्यक्ति और समुदाय अपने से बेहतर वर्ग की भाषा (उदाहरण के लिए हिन्दी) बोलना (खड़ी बोली) शुरू कर देता है/ यह जो अपग्रेडेशन का स्तर है जब वह और बढ़ता है तो क्रमशः वह आदमी अंग्रेज़ी बोलना शुरू करता है/ यह एक सामान्य उदाहरण है कि आय के बढने के साथ ही व्यक्ति अपने बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम के विद्यालय में पढ़ाना चाहता है और उसके मुंह से “ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार” की पोयम सुनना चाहता है/

किसी भाषा को श्रेष्ठता के स्तर के साथ कैसे जोड़ा जाता है या यूं कहें कि कैसे जुड़ जाती हैं इसके अपने ऐतिहासिक और सामाजिक-आर्थिक कारं होते हैं इन पर विस्तार से चर्चा कभी और/ इस विचार को ऐसे भी कहा जा सकता है कि “जैसे जैसे संस्कृतिकरण होता जाता है आदमी अपने पुराने चोले को हटा देना चाहता है और उस वर्ग की भाषा संस्कृति कला यहाँ तक कि विचारों को अपना लेना चाहता है जो उसे अपने से श्रेष्ठ वर्ग लगता है या दूसरे शब्दों में कहें तो प्रभु वर्ग/”

जैसा कि पहले ही मैने यह स्पष्ट किया कि यहाँ चिन्ता की बात यह नहीं है कि हिन्दी रहेगी या नहीं हालाँकि कोई अनन्त काल के लिए तो कोई भाषा नहीं रहती मगर चिन्ता का मुद्दा है बोलियों का बचना…क्योंकि जैसे ही आदमी शिक्षित होता है, आर्थिक समृद्धि प्राप्त करता है, वह अपनी बोली को बोलना छोड़्ने लगता है/

सांस्कृतिक प्रवाह में और समय की धारा में भाषाएँ आती जाती रहती हैं/ नई नई भाषाएं पुरानी भाषाओं का स्थान लेती रहती हैं/ यहाँ तक कि पाली और प्राकृत जैसी धार्मिक भाषाएँ भी अनन्त काल के लिए नहीं होतीं उन पर भी विलोप के खतरे मँडराए होंगे और उनका प्रचलन समाप्त हो गया होगा.. बदलते हुए सांस्कृतिक परिदृश्य में खतरे की घंटी लोकबोलियों के लिये है/ यह सांस्कृतिक परिदृश्य निश्चित रूप से आर्थिक और तकनीकी परिवर्तनों से प्रभावित होता ही है/ यदि बोलियों बोलने में, उनमें बतियाने में, सम्वाद स्थापित करने में यदि समुदायों को हीनभावना लगने लगे (अनजाने में ही सही) तो उन बोलियों का अस्तित्व कैसे टिक सकता है/ दुनियाँ की कोई भी बोली हो कोई भी मगर जन जीवन से जुड़े हुए और दैनन्दिन चर्या से जुड़े हुए शब्द जो आपको बोलियों में मिलेंगे वे उस बोली से सम्बद्ध कथित श्रेष्ठ भाषा में नहीं मिल सकते/ मैं यहाँ उ.प्र. और म.प्र. में बोली जाने वाली बोली बुन्देली का उदाहरण रखना चाहता हूँ/ खेत खलिहान और ज़मीनी अभिव्यक्ति से जुड़े हुए शब्द कुछ तो इसमें ऐसे हैं कि काफ़ी प्रयास के बावज़ूद मैं हिन्दी में उनके समानार्थी खोज नहीं सका/ मैं समझता हूँ कि ऐसा ही बाकी तमाम सारी बोलियों के साथ भी है/

बोलियों के साथ एक और चीज़ है कि वे ग्रामीण परिवेश के साथ समायोजित है और उस परिवेश के साथ ही बोलियों को एसोसिएट किया जाता है/ सामाजिक स्तरीकरण के चरण जैसे जैसे पार होते है, वैसे-वैसे व्यक्ति स्वयं को नगरीय सभ्यता के साथ जोड़ने का आकांक्षी होता है और ग्रामीण सभ्यता वाली पहचान से खुद को पृथकीकृत करना चाहता है/ इस ज़द्दोजहद में हानि होती है बोलियों की/

इस प्रकार के सामाजिक स्तरीकरण में सिर्फ़ बोलियों का नुकसान नहीं होता बल्कि यूं कहें कि तमाम सारी लोक-परम्पराओं विशेषकर ग्राम-सभ्यता की ओर खतरे का एक और क़दम सरक आता है/

बोलियाँ अपने साथ सिर्फ़ इतिहास गौरव नहीं लिये हुए हैं बल्कि संस्कृति का बहुत सारा सत्व और सामाजिक चिन्तन इनमें समाया हुआ है/ वाचिक परम्परा के तहत शामिल कथा, गीत और अन्य कलाएँ इसके अतिरिक्त हैं/ हालाँकि यह कहना बहुत मुश्किल है कि क्या बचेगा और क्या नहीं क्योंकि समय की आँधी में तमाम संस्कृतियाँ, बोलियाँ, भाषाएं यहाँ तक कि धर्म और पन्थ भी उड़ गए, मगर इस दफ़ा आँधी की रफ़्तार कुछ ज़्यादा ही तेज़ है/ भाषाओं के बनने बिगड़ने का क्रम चलता रहता है/ अनादिकाल से यह प्रवाह सभ्यता को गतिमान रखे हुए है मगर इसके पहले तक भाषाएं एक क्रम्बद्ध तरीके से उत्तरोत्तर विकसित और परिमार्जित होती रहीं/ कई सारी भाषाएँ संस्कृत से निकली और स्वतन्त्र रूप में भी उनका अस्तित्व रहा/ अब प्राकृत, अपभ्रंश, पाली, इत्यादि के ही कई सारे रूप हुआ करते थे जिनसे तमाम सारी बोलियों का विकास हुआ. मागध प्राकृत से मगधी का उद्भव हुआ तो शौरसेनी प्राकृत से बृज बोली का/ मगर इन भाषाओं का लोप नहीं हुआ बल्कि दूसरी बोलियों या भाषाओं में परिवर्तन और परिवर्धन होता रहा/

अभी स्थिति थोड़ी जुदा है/ खतरा यह है कि कुछ विशेष भाषाओं का ही अस्तित्व रह जाएगा और बाकी की निपट जाएंगी/ भाषा के बहुलवाद की समाप्ति का खतरा असली खतरा है/ हालाँकि भाषा के अनावश्यक शुद्धिकरणवादी पैरोकारों से मैं इत्तेफ़ाक़ नहीं रखता मगर ये ज़रूरी तो है ही कि कम से कम किसी भाषा को शुद्ध रूप में जानने समझने वाले लोग बचे तो रहें/ यह बात बोलियों के सन्दर्भ में भी सत्य है/ मैने स्वयं अपनी बोली बुन्देली में नोटिस किया है कि ऐसे कई सारे शब्द हैं जो आज मेरी पीढ़ी को पता ही नहीं हैं या फ़िर उनका स्थान हिन्दी के शब्दों ने ले लिया है इसकी वजह ये भी हो सकती है कि अब वे शब्द अप्रासंगिक हो गए हैं या अनुपयुक्त/ यदि कोई वस्तु ही लोगों को देखने को न मिले तो उसकी संज्ञा शब्दों का संरक्षण कैसे किया जा सकता है? शब्दों का कोई प्रेज़र्वेशन कर के तो रखने का औचित्य है नहीं/ 

किसी भाषा का लोप होना सिर्फ़ उस भाषा का मरना नहीं है वरन्‌ एक सम्पूर्ण संस्कृति समुच्चय का अवसान होना है/

भाषा सम्बन्धी विमर्श को आगे बढ़ाते हुए इस में यह बिन्दु जोड़ना भी आवश्यक है भाषा का फलते फूलते रहना एक जीवन शैली का और वैचारिक समुत्पादों का, एक संस्कृति का बने रहना है/

इन सब तर्कों प्रतितर्कों और समझ के बावज़ूद यह सवाल हमारे सामने बना हुआ है कि बोलियों को कैसे बचाया जाए? और उसके पहले ये कि क्या वाकई बचाने की ज़रूरत है? और यदि हाँ तो कैसे? या फ़िर इस परिवर्तन की प्रक्रिया को जस का तस स्वीकार कर लिया जाए? बिना किसी ना-नुकर के/ कुल ज़मा बात ये कि क्या इस भाषाई क्षरण की गति को कुछ मन्दीकृत किया जा सकता है या कम से कम स्थिर किया जा सकता है? मैं उत्तर नहीं दे सकता क्योंकि जटिलीकृत होती जाती आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था में उत्प्रेरक कारक न सिर्फ़ बहुत सारे हो गए हैं बल्कि उनके संयोजन भी अत्यधिक हैं/ भाषाओं का सवाल फ़िलहाल तो अनुत्तरित ही रखता हूँ हालाँकि जवाब शायद नकारात्मक हो जिसकी सम्भावना मुझे ज़्यादा लगती है/

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अच्छे रिटर्न वाले निवेश

मई 9, 2007 at 5:28 पूर्वाह्न (कुछ इधर की कुछ उधर की)

अच्छी नौकरी लगने के बाद बहुत से लोगों के सामने समस्या ये आती है कि अब जो पैसा बच रहा है उसका क्या किया जाए? ये समस्या इस ब्लोग को पढ़ने वाले मेरे कई दोस्तों के सामने आ रही होगी/

एक तो रेडीमेड उपाय है कि बैंक में जमा कर के उसपर ब्याज खाते रहा जाए, मगर उसमें लोचा ये है कि जितने की आमदनी होती है उससे ज़्यादा टै़क्स देना पड़ जाता है मतलब जितने की भक्ति नहीं हुई उससे ज़्यादा के मँजीरे फूट जाते हैं/

कुछ जानकार लोग ये भी बताते हैं कि इन्वेस्टमेंट किया जाए/ इन्वेस्टमेंट का मतलब अलग अलग कंपनियों के शेअर में पैसा लगाना, म्यूचुअल फ़ंड में पैसा लगाना, और बीमा पॉलिसी खरीदना होता है/ मगर खरीदें तो किस कंपनी का ये समस्या है/ ज्ञानीजन इसका उत्तर देते हैं जिसका रिटर्न अच्छा हो उस कम्पनी में पैसा लगाना चाहिये/

इसी जोड़ घटाव में मैं आजकल परेशान हूँ कि कहाँ पैसा लगाया जाए/

वैसे मैंने कुछ बहुत दमदार रिटर्न देने वाली शेअर कम्पनियों और म्यूचअल फ़ंड की जानकारी इकट्ठी की है/ बिजनेस के इच्छुक लोगों की जानकारी के लिए यहाँ प्रकाशित कर रहा हूँ/

A. सबसे प्रमुख नाम है हिन्दुत्व & सन्स कम्पनी का- इसका हेड ऒफ़िस नागपुर में है और अन्य शाखाएं विभिन्न प्रदेशों की राजधानियों में हैं इस कम्पनी के बारे में खास बात ये है कि इसके रिटेल आउटलेट तमाम सारे कस्बों में मौज़ूद हैं जिन्हें शाखा के नाम से जाना जाता है हालाँकि इन आउटलेट्स से आजकल बिक्री थोड़ी सी डाउन है यहाँ अत्यन्त प्राचीन माल उपलब्ध रहता है जिसकी गुणवत्ता पर कोई सन्देह नहीं किया जा सकता/

वैसे तो ये कम्पनी काफ़ी पुरानी है मगर इसके शेअर होल्डर बनने क अधिकार सबको नहीं है/

इस कम्पनी ने समय समय पर अनेक म्यूचअल फ़ंड निकाले हैं जिनके नाम निम्नलिखित हैं

१. गौ-वन्श संरक्षण– यह इसका सबसे पुराना फ़ंड है जिसका रिटर्न बहुत ज़बर्दस्त तो नहीं रहा था मगर इससे कम्पनी को एक पहचान ज़रूर मिली थी/ अब भी पुराने व्यापारी लोग कभी कभी इस फ़ंड के शेअर बेचने की कोशिश यदा-कदा करते रहते हैं/

२. स्वदेशी फ़ंड- यह फ़ंड लोगों को बहुत पसन्द नहीं आया हालाँकि इस फ़ंड में कम्पनी ने कुछ अलग करने की कोशिश की थी मगर शेअर होल्डर्स का इस फ़ंड को अपनाने में नुकसान हो रह था इसलिए यह चला नहीं ज़्यादा/ बाद में रेगुलेटर्स ने इस फ़ंड की बिक्री लगभग खत्म करवा दी/

३. कम्पनी की ऎतिहासिक योजना है “मन्दिर पुनर्निर्माण योजना”– इस योजना ने वाकई लोगों की किस्मत बदल दी/

जिनको कोई उधार नहीं देता था, गाँव भर के लोगों ने उन्हें पूँजी के लिये चन्दे के रूप में चादर भर भर के पैसा दिया/ इस योजना के मेम्बर बन के कोई भी श्रद्धालु व्यापारी कई वर्षों तक निरन्तर लाभ प्राप्त कर सकते हैं हर विधानसभा चुनाव में इस योजना पर डिविडेण्ड दिया जाता है/ यह लाभ उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनावों में दोगुने से भी ज़्यादा हो सकता है/

यह योजना पहले काशी, मथुरा और अयोध्या के लिये लागू थी यानि कि वहाँ पर कम्पनी का अपनी फ़ैक्ट्री डालने का प्लान था मगर उपरोक्त योजना की अद्भुत सफ़लता को देखते हुए कम्पनी ने तय किया कि एक पूरी अलग कम्पनी “राम मन्दिर निर्मांण प्राइवेट लिमिटेड” के नाम से खोल दी जाए/ इस कम्पनी ने १९८८-८९ के दौरान गाँव-गाँव से पूँजी इकट्ठी की और कम्पनी का हेड ओफ़िस अयोध्या में बनाने की कोशिश की मगर वहाँ पर पहले से एक निजी कम्पनी कार्यरत थी जिसकी वजह से हाथा-पाई की नौबत आ गई/

इस नये उद्यम का डिविडेण्ड बहुत शानदार रहा और मालिकों की इसे खोलने की योजना पूरी तरह सफ़ल साबित हुई/ यहाँ तक कि इस कम्पनी के लाभांशों पर आयकर की छूट भी मिल गई/ इसके चूँकि ग्राहक बहुत ज़्यादा थे इस लिये यह तय किया गया कि इस स्कीम को सिर्फ़ चुनावों के समय ही जनता के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा बाकी समय दूसरे छोटे-छोटे फ़ंड उपलब्ध कराए जाएंगे/ इस योजना का पे-बैक समयावधि बहुत कम रही मतलब ये कि बहुत जल्दी रिटर्न मिलना शुरू हो गए/

अयोध्या-मन्दिर म्य़ूचुअल फ़ंड पहले एक बम्पर रिटर्न दे चुका है इस रिटर्न का लाभ ये हुआ कि उस समय जिसने भी इसके शेअर इफ़रात में खरीद लिये वे सब मन्त्री विधायक सांसद तक हो गये/ कुछ लोग केन्द्र में मन्त्री भी बने और अभी तक बन रहे हैं/

४. तुष्टिकरण विरोधी म्यूचअल बेनेफ़िट ट्रस्ट- यह ट्रस्ट बहुत ही नेक उद्देश्यों के साथ कम्पनी ने अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारियाँ निभाने के लिये गठित किया है/ इसमें आप अलग अलग समय में अलग अलग प्लान खरीद सकते हैं/ इस ट्रस्ट के मुख्य ट्रस्टी एक पश्चिमी प्रदेश के मुख्यमन्त्री हैं जिनका काम इस ट्रस्ट के सामाजिक सोद्देश्यों को प्रचारित करना और उन्हें बढ़ावा देना है/

निरन्तर बढ़ती लोकप्रियता और जबर्दस्त बिजनेस के कारण कम्पनी को इस बाज़ार में प्रतियोगिता का सामना करना पड़ रहा है/ यह प्रतियोगिता ठाकरे & सन्स की वजह से महाराष्ट्र में बढ़ गई है साथ ही कम्पनी के एक पूर्ववर्ती निदेशक ने अपनी अलग कम्पनी लाँच कर दी है/ इन सब कारणों के चलते अभी कुछ रिटर्न में कमी आई है/

कम्पनी नए उपायों के साथ शेअर होल्डर्स को रिझाने में लगी है साथ ही ये बता भी रही है कि “असली हिन्दुत्व सिर्फ़ हम बेचते हैं, इस शहर में हमारी कोई अन्य शाखा नहीं है, नक्कालों से सावधान” /

B. बाज़ार की सबसे पुरानी कम्पनी काँग्रेस & फ़ैमिली प्राइवेट लिमिटेड है यूँ तो इस कम्पनी ने लॊंग टर्म इन्वेस्टर्स को जबर्दस्त लाभांश दिये हैं मगर छोटी अवधि के निवेशकों के लिए इस कम्पनी में फ़िलहाल कोई आकर्षक योजना उपलब्ध नहीं है/

इस कम्पनी की खास बात ये है कि इसका निदेशक मंडल यानि बोर्ड ओफ़ डायरेक्टर्स हमेशा एक जुट रहता है सी.ई.ओ. के पीछे और सी.ई.ओ.  की पोस्ट एक ही व्यक्ति के पास आजन्म बनी रहती है/ यदि परिवार में कोई बच्चा पैदा होता है तो कम्पनी को आने वाले सत्तर साल तक नए सी.ई.ओ. की तलाश नही करनी पड़ती/ इस वजह से कम्पनी बाज़ार में स्थिरता की गारंटी का दावा करती है/ इस कम्पनी ने अब तक का सबसे शानदार प्रदर्शन किया है “गरीबी हटाओ-बम्पर रिटर्न योजना” में/ इस का रिटर्न वाकई बम्पर रहा था और इस रिटर्न के चलते कई सालों तक शेअर होल्डर्स को लाभांश बाँटे जाते रहे/ इस कम्पनी ने अपने टारगेट क्लाइंट के हिसाब से अलअग अलग उत्पाद मार्केट में उतारे हैं जिससे कि इसका पोर्ट्फ़ोलिओ विविधीकृत है/ इस की सबसे खास बात ये है कि यह कम्पनी तब अच्छा प्रदर्शन करती है जब उम्मीद बिल्कुल कम हो/

अभी मार्केट में ताज़ा फ़ंड इन्होंने उतारा है उसका नाम है “ओ.बी.सी. आरक्षण इन्सेन्टिव प्लान” इसके तहत कम्पनी अपना पब्लिक ऒफ़र देने जा रही है ताकि रिटर्न्स अगले चुनाव तक प्राप्त किये जा सकें मगर कुछ तकनीकी अड़ंगों के चलते यह प्लान ज़ोर की बिक्री पकड़ नहीं पा रहा है/ इसके अलावा स्थानीय स्तर पर कुछ छोटी कम्पनियाँ इस तरह के ऒफ़र के साथ पहले से ही तैयार बैठीं हैं/

C. इन दो मुख्य कम्पनियों के अतिरिक्त छोटे -छोटे योजनाओं वाली भी कुछ कम्पनियाँ है जिनका रिटर्न पिछले चुनाव वर्षों में ठीक-ठाक रहा है जैसे कि “दलित-वर्ग बेवकूफ़ बनाओ ट्रस्ट” -प्रायोजक मायावती&मायावती, मुस्लिम हिमायत शेअर होल्डर्स- मालिक मुलायमसिंह (असली समाजवादी)

D. इन सबके अतिरिक्त एक ऐतिहासिक IPO का उल्लेख किये बिना जानकारी अधूरी रह जाएगी/ दर-अस्ल अयोध्या मन्दिर म्यूचअल फ़ंड इस IPO को टक्कर देने के लिये ही उतारा गया था/ इस का नाम है “मंडल मिलेनियम मेगा ओफ़र” – इस ओफ़र में नया कुछ नहीं था बल्कि यह तो काफ़ी पहले एक बिजनेस प्रोसेस रि-एन्जिनीयरिंग की रिपोर्ट में पड़ा हुआ था/ मगर अचानक ही कम्पनी के सी.ई.ओ. की नज़र इस पर पड़ी जो कि कम्पनी के अन्दरूनी विद्रोहों से परेशान थे/ उनके इस प्रस्ताव को हाथ लगाते ही उनके स्वयं और इस प्रस्ताव, दोनों के दिन बदल गए/

कम्पनी हालाँकि बाद में दिवालिया हो गई मगर तगड़े रिटर्न देके गई/ इस कम्पनी से टूट के बनी कम्पनियाँ आज तक इस IPO की तर्ज़ पर मॊडल उतारते रहती हैं/

तो भाई आपके सामने ये सब कम्पनियाँ और उनके स्कीम्स हैं/ बस ये तय कीजिये कहाँ इन्वेस्ट करना है हर तरह का प्लान हाज़िर है/ 

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पगडंडी के रास्ते किताब

मई 3, 2007 at 7:54 अपराह्न (कुछ इधर की कुछ उधर की)

 कभी कभी लोग पूछते हैं या बुद्धिजीवी किसिम के दोस्त ज़रूर पूछते हैं कि भाई भास्कर आजकल क्या पढ़ रहे हो? अब सामान्य तौर पर हम कुछ पढ़ते लिखते तो हैं नहीं मगर बुद्धिजीवी दोस्त पूछ के शर्मिन्दा न हो जाएँ इसलिये कुछ बताना लाज़िमी हो जाता है/ अगर हम कह दें कि भाई आजकल नौकरी से फ़ुर्सत मिल ही नहीं रही कि कुछ पढ़ें या यूँ कि शाम को आके हम खाना बनाने में व्यस्त हो जाते हैं इसलिये पढ नहीं पा रहे, तो जितनी शर्म हमें नहीं आएगी उससे ज़्यादा मेरे दोस्त को आएगी कि देखो तो साले को हमारा दोस्त होने का गौरव भी प्राप्त कर रहा है और कुछ पढ़ता ही नहीं है/
इस प्रकार के अप्रिय प्रसंगों से बचाने के लिए मैं कुछ न कुछ बता दिया करता हूँ..वैसे बहुत से भाइयों ने मुझे एक राज़ की बात बताई है आपसे भी शेअर कर सकता हूँ.. वो ये कि जो खाँटी बुद्धिजीवी बनना चाहे उसे पढ़ना अनिवार्य नहीं है/ बुद्धिजीवी लोग किताबें नहीं पढ़ते वे लोग लेखकों को पढ़ते हैं दर-असल वे माल नहीं खरीदते ब्रांड खरीद कर खुश हो रहे होते है/ एक तरीका और है उसे पगडंडी पढ़ाई कहते हैं/ पगडंडी पढ़ाई होती है जैसे हम लोग १०वॊईं १२वीं में पढ़ा करते थे/ मुख्य मुख्य प्रश्नों के उत्तर रट के चले जाते थे और एग्जामिनेशन हॉल में उल्टी कर के भाग आते थे/ बहुत से लोग पगडंडी जेब में रख के भी एग्जाम हाऑल चले आते थे/
इस तरीके के पढ़ाई का मुख्य सिद्धान्त है कि किताब का रिव्यू पढ़ लो/ आलोचना वाले विद्वान उस किताब की अच्छाई बुराई लिख ही देते हैं कण्टेण्ट के बारे में भी पता चल जाता है/
इसके बाद किताब से उद्धरण निकाल के २-४ कहीं नोट कर लो ताकि मौक़े बेमौक़े काम आ सकें/ बाकी बचता है काम लेखक का नाम पता याद रखने के तो वो आसानी से किया जा सकता है/
कभी कभी मैं उन लोगों की प्रतिभा से बहुत कुण्ठित महसूस करता हूँ जो एक बार मे ३-४ नोवेल, २-३ गैर-फ़न्तासी ग्रन्थ और ८-१० दीगरकिताबों का अध्ययन कर रहे होते हैं/ मैं सोचने लगता हूँ यार ऐसे ज़्यादा नहीं कुछ ३-४ हज़ार लोग हिन्दुस्तान में हो जाएं तो लेखकों की गरीबी और पाठकों का अभाव जैसी चिरन्तन समस्याएँ मिट जाए क्योंकि इन लोगों को एक ही समय में १५-२० किताबें पढ़ने की आदत होती है/
ये लोग असल में किताबों की पगडंडियों से गुज़र के पुस्तकों का रसास्वादन करते हैं/
एक दूसरा रास्ता है पम्फ़्लेट पुस्तक का गहन अध्ययन/ ये थोड़ा अलग तरह के पाठक होते हैं जो दुनियाँ के सब विषयों पर न सिर्फ़ कुछ न कुछ पढ़ चुके होते हैं बल्कि शायद ३-४ हज़ार विषयों पर उनकी डॉक्टरेट कम्प्लीट हो गई होती है/ ये सज्जन पम्फ्लेट को भी किताब का आदर देते हैं और उस पम्फ़्लेट को ही बाद में थोड़ा थोड़ा तानते खींचते किताब में बदल देते हैं/
आयुर्वेद की किसी दुकान का विज्ञापन भर पढ़ लेने से इनको आयुर्वेद के निघण्टुओं तक की जानकारी हो जाती है/
मेरे एक मित्र हैं वे सिर्फ़ पढ़ने के लिये पढ़ते हैं/ अच्छी बात है कुछ लोग खाने के लिये ही जीते हैं, ये पढ़ने के लिये जीते हैं/ वे कहते हैं कि मैं सब कुछ पढ्ता हूं वेद्प्रकाश शर्मा से ले के …….. (अंग्रेज़ी के कुछ बड़े नाम थे याद नहीं आ रहे ) तक सबको पढ्ता हूँ/ मतलब लुगदी साहित्य से ले के कालजयी रचनाओं तक सब कुछ/ हमने कहा फ़िर तो आप वर्णमाला और आरतियाँ भी पढ़ सकते हैं क्योंकि आपको तो समय काटने के लिये पढ़ना है या फ़िर पढ़ने के लिये पढ़ना है/ मैं सोच रहा हूँ कि आदमी को अगर पता ही न हो कि उसे क्या पढ़ना है, उसे पता ही न हो कि क्या पढ़ना चाहिये और क्या नहीं तो उस व्यक्ति का दिमाग तो एक कूड़ेदान सरीखा नहीं हो गया कि जिसमें हर घर से कुछ न कुछ मटेरियल सुबह सुबह डाल दिया जाता है/
आइला
कहाँ की बात चल रही थी कहाँ आ गई?
मुद्दा ये बात रही कि लोगों को हम पर कभी कभी शक़ हो जाता है कि हमारा किताबों से नाता रहता है/ और इसी उलझन में पूछ बैठते हैं कि “भाई क्या पढ़ रह हो” यहाँ भैंस चारा खाए कि दूध की गुणवत्ता पर सेमिनार में भाग लेने जाए?
मगर हमारे दोस्त शर्मिन्दा न हों इसलिये हम मज़बूरन बता देते हैं कि भाई अमुक किताब पढ़ रहे हैं/
कुछ दिन हुए एक सज्जन मिले एक वर्कशॉप में उन्होंने भी कुछ ऐसा ही प्रसंग छेड़ दिया ..संयोग से उस समय कोई पुस्तक हम पढ़ रहे होंगे// हमने पुस्तक का नाम बता दिया//
उन्होंने हमारी तरफ़ ऐसे देखा मानो हमने किताब का नाम नहीं बताया हो बल्कि मीटिंग रूम का गिलास बैग में डालते वक़्त पकड़े गए हों/
कहने लगे यार नया क्या पढ़ रहे हो? कन्टेम्परेरी क्या पढ़ रहे हो?
हमने उद्दंडता से जवाब दिया यार ये क्या कण्टेम्परेरी नहीं है? और अगर नहीं है तो उससे क्या मुझे पसन्द है/
उनको शायद मेरी बालहठ पर और मेरी नादानी पर तरस आया होगा इसीलिए कृपापूर्ण निगाहों से देखते रहे/
फ़िर उन्होंने कहा “यार तुम कायदे का क्या पढ़ रहे हो/”
मैने मन में सोचा अगर मेरी बताई हुई किताब के लेखक यह बात सुन लें तो बेचारे लिखना बन्द कर दें और मोबाइल रिचार्ज की दुकान खोल लें/
“कायदे की ही तो है यार ये किताब..” मैने प्रतिवाद में कहा/
“नहीं मेरा मतलब इंगलिश में कुछ नहीं पढ़ते हो?”
हमने कहा “हाँ पढ़ते तो हैं अखबार वगैरह देख लेते हैं अपने विषयों या काम से सम्बन्धित लेख रिपोर्ट्स वगैरह पढ़ते हैं इंगलिश में”
मैने सज्जन के चेहरे पर उभरते मनोबावों से ये अर्थ निकाला कि उनका चेहरा का एक एक अंश कह रहा है कि धिक्कार है तुमपे हिन्दी पढ़ते हो .. अंग्रेज़ी नहीं पढ़ते हो फ़िर क्या ख़ाक पढ़ा तुमने /”
मै बेशर्म वहाँ से खिसक लिया, बुद्धिजीवी सज्जन दुखी हो गये थे/
भाई ऐसा हो गया है इन दिनों कि लोग एक दूसरे को बताते हैं देखो हम ये पढ़ रहे हैं तुमने पढ़ा है कभी इसे?( अरे देखा भी है?)
कभी कभी मैं सोचता हूँ कि हम पढ़ने के लिये पढ़ते हैं या दूसरे को दिखाने के लिये?
हम ज़्याँ पाल सार्त्र पढ़ रहे हैं, हम कृष्णमूर्ति को पढ़ रहे हैं, हम इन्डियन फ़िलोसोफ़ी वाली बुक श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ रहे है अंग्रेज़ी ट्रान्सलेशन है बाबू, हम मार्केटिग की बेस्ट्सेलर पढ़ रहे हैं, हम सिडनी शेल्डन पढ़ रहे हैं, हम नैन्सी फ़्राईडे पढ़ रहे हैं….
लोग शायद ही हिन्दी पढ़ रहे हैं या हो सकता है पढ़ते हों मगर छुपाते हों कि दूसरा सुनेगा तो क्या सोचेगा देखो अभी भी हिन्दी पढ़ता है पूअर चैप.
किताबों की जो दुकानें बड़े बड़े मॉल्स में खुली हैं वहाँ किताबें खरीदना एक कॊस्टली अफ़ेयर बना दिया गया है शायद लग्ज़री से जोड़ के और इसलिये किताब का कथ्य नहीं उसका नाम बिकता है और लेखक का नाम बिकता है/ लग्जरी वाली किताबों की दुकानें हिन्दी जैसी गरीब और दरिद्र भाषा का माल नहीं रखतीं/ उनके कस्ट्मर ऐसे है ही नहीं/
ऐसा भी होता है कि किसी बुद्धिमान व्यक्ति ने सोचा हो कि पढ़ने का झंझट बहुत है मगर बुद्धिजीवी तो बनना है..क्या किया जाए? ऐसा करते हैं कि किताबों के ढेर खरीद लेते हैं/
बहुत से कस्ट्मर किताब खरीदने नहीं आते अपने लिये बौद्धिक होने का तमगा खरीदने का भुगतान किस्तों में करने आते हैं/ ऐसा सिर्फ़ किसी भाषा तक सीमित हो ऐसा नहीं है/
मैने महसूस किया है कि आजकल उच्च शिक्षित वर्गे में हिन्दी में पढ़ने को पढ़ना नहीं समझा जा रहा/ जब आपसे प्रश्न पूछा जाता है कि क्या पढ़ रहे हो तब उम्मीद ये की जाती है कि आप किसी धुआँधार किस्म के बड़े से अंग्रेज़ी लेखक का नाम बताएंगे या किसी बेस्टसेलर किताब का नाम…जब मेरे जैसे लोग दोनों कसौटियों पर खरे नहीं उतरते तब उनके विश्वास को बड़ी चोट लगती है, शायद वे सोचने लगते हैं कि अरे अंग्रेज़ी किताबों के बाहर भी कोई पढ़ता लिखता है?

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किसान की मौत का मर्सिया

अप्रैल 29, 2007 at 9:42 पूर्वाह्न (विवक्षा)

 

आज की तीन खबरें ऐसी है जिनपर बिना कहे और लिखे रहा नहीं जा सकता I

पहली खबर यह कि उरई जिले में एक किसान ने आत्महत्या कर ली क्योंकि उसकी फ़सल खराब हो गई थी और उस पर सूखा और फ़िर ओलावृष्टि ने काम तबाह कर दियाI इस दौर में जब शेअर मार्केट के उतार चढ़ाव और शिल्पा शेट्टी के चुम्बन समाचारों की सुर्खियों में छाए रहते हैं किसानों की आत्महत्या और दिनोंदिन बिगड़ती जाती ग्रामीण अर्थव्यवस्था की सुध लेने में किसी की दिलचस्पी नहीं हैI कितनी अज़ीब बात है कि अगर वोट बैंक की नज़र से देखें तो भी किसान किसी जाति या धर्म विशेष से अधिक ही हैसियत रखते हैंI मगर उनकी समस्याओं की तरफ़ किसी की तवज़्ज़ो नहीं हैI कहीं यह इसलिए तो नहीं कि किसान संगठन का अभाव है या फ़िर वे बड़े औद्योगिक घरानों की तरह राजनीतिकों को आर्थिक सहायता नहीं करते/ दर-असल छोटे और मध्यम किसानों की सम्स्याएं न तो समझी जा रही हैं न ही उन पर कोई कारगर उपाय किए जा रहे हैंI

ज्ञानेन्द्रपति अपनी एक कविता में कुछ ऐसे ही विचार व्यक्त करते प्रतीत होते हैं जब वे देसी बीजों की तुलना मोन्सेन्टो के संकर बीज़ों के साथ करते हैं I कृषि लगातार पिछड़ रही है मगर उस पर सरकारें कोई योजना कोई आयोग तक बनाने की ज़हमत नहीं कर रहीं I सा क्यों?  स्वयम्भू कृषक नेता शरद पवार जैसे लोग क्रिकेट के खेल में व्यस्त हैं उड्डयन मन्त्री प्रफ़ुल्ल पटेल के इलाके विदर्भ में आत्महत्याएं हो रही हैंI मेरा मानना है कि किसान की आत्महत्या कोई खबर नहीं है न ही चिन्ता की बात….मुद्दा ये है कि उन परिस्थितिजन्य जड़ता को तोड़ने के लिए क्या किया जा रहा है जिसका प्रतिफ़ल इन आत्महत्याओं में नज़र आता हैI

ऐसा नहीं है कि किसान आन्दोलन हुए नहीं इस देश मेंI आज़ादी के पहले ही स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने किसानों को एकजुट करके आन्दोलन खड़ा किया थाI बंगाल का तेभागा आन्दोलन (१९५० के दशक में) भी किसान आन्दोलन ही था. और पीछे जाएं तो नील की खेती करने वाले किसानों का संगठन महात्मा गाँधी के आन्दोलन की नींव बना थाI

स्वातन्त्र्योत्तर भारत में किसानों की समस्याओं पर जितना ध्यान दिया जान था उतना न दिया गया न ही दिया जा रहा है. हो सकता है खेती आज GDP में, सेवा और उद्योग क्षेत्र के मुक़ाबले कम योगदान कर रही हो मगर क्या इस सत्य को नकारा जा सकता है कि देश के ग्रामीण इलाकों की बहुसंख्य आबादी अब भी कृषि पर निर्भर है अपने दैनिक जीवन यापन के लिए.. अब भी काफ़ी सारा इलाका चूंकि एकफ़सली है और उस पर भी मानसून की मेहरबानी पर निर्भर तो वर्ष का तकरीबन २ तिहा भाग किसान या तो मज़दूरी करता है या फ़िर जैसे तैसे काम चलाता हैI इन परिस्थितियों को बदलने के लिए कोई तैयार नहीं.

१९८० के दशक में महेन्द्रसिंह टिकैत ने किसानों का आन्दोलन को गति दी मगर अब उनका भी ऐसा मानना है कि वैसा आन्दोलन खड़ा करना मुश्किल है क्यों कि किसान अपनी खेतीबाड़ी देखे या रोज़ रोज़ आन्दोलन का झंडा बुलन्द करेI

ऊपर जिस घटना का उल्लेख मैंने किया वह बुन्देलखन्ड के इलाके से ताल्लुक रखती है एक तो वैसे भी बुन्देलन्ड का इलाका खनिज सन्साधन विहीन काफ़ी हद तक गैर-उपजाउ इलाका है उस पर कृषि ही यहां का मुख्य आय स्रोत है I इन परिस्थतियो में अपराध र दस्यु समस्या जन्म नहीं लेगी तो क्या भक्ति आन्दोलन की धारा बहेगी?

किसान के लिए कुछ करने का अर्थ उसको सब्सिडी की भीख देना नहीं हैI वे परिस्थितयाँ बदलिए जिन्होंने आज इस मुकाम पर हिन्दुस्तान के किसान को ला खड़ा किया हैI क्या कभी इस बात पर गम्भीरता और सहानुभूति से विचार किया गया कि बड़ी बीज कम्पनियां आ जाने के बाद छोटे किसानों का क्या होगा जिसे हर फ़सल के पहले बीज खरीदना होगा जो अब तक वह परम्परागत रूप से संग्रहण करते आ रहा थाI

दुख की बात यह है कि किसान का दर्द तो छोडिए किसान की समस्याएँ और किसान का नाम भी संचार माध्यमों में कहीं नहीं है/ क्या यह एक संयोग मात्र है कि टेलिविजन या फ़िल्मों में किसान बिल्कुल गायब है/ उसकी कहानी न दिखाई जा रही है न ही लिखी जा रही है / जो थोड़ा बहु किसानपन है वो पंजाब के किसान की फ़ोटो. और बड़े आलीशान रेस्तराँ में मक्के की रोटी/ मगर क्या वह किसान हमारे आस-पास के किसान से मिलता जुलता मालूम पड़ता है? कम से कम मुझे तो नहींI

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दलितों में महादलित

अप्रैल 29, 2007 at 9:39 पूर्वाह्न (राजनीति के अखाड़े से)

जब जब सामाजिक प्रयोग करने की बात आती है समाजवादी नेताओं के नाम ख्याल में आते है/ कभी कभी भाजपाई भी याद आते हैं जिन्होंने और बड़े पैमाने पर सामाजिक प्रयोग किये हैं/ मगर दोनों की प्रयोगशालाएं अलग अलग हैं

शुरू में सबका साझा था क्योंकि बड़े सेठ लोग अपनी दुकान लोकतन्त्र के मार्केट में चलाना तो दूर लगाने ही नहीं दे रहे थे/ एक प्रयोग सन १९६७ में हुआ था संविद सरकारें बना कर (संयुक्त विधायक दल) फ़िर तमाम सारे प्रयोग दोनों दलों के वैज्ञानिकों ने किये/ बाद में नित नए प्रयोगों के चलते एक दूसरे की प्रयोगशालाओं में कोई रेडिएशन न फ़ैल जाए (या फ़ार्मूला कोई दूसरा न चुरा ले) इस वजह से दोनों पक्षों के वैज्ञानिकों ने आपस में मिल बैठ के तय किया कि अपन प्रयोगशालाएं अलग अलग कर लेते हैं हमारे तरफ़ के प्रयोगशाला से जो प्रोक्ट निकलेगा उसपे तुम नज़र मत दालना और ऐसा ही हम तुम्हारे लिये करेंगे/ 

बहरहाल भाजपाइयों की प्रयोगशाला बनी गुजरात और समाजवादियों ने उ.प्र. और बिहार में धमाचौकड़ी का कार्यक्रम शुरू किया/ बीच में यू.पी. में भी कुछ टाइम तक भाजपाइयों ने कोशिश कि मगर ज्यादा सफ़लता हाथ आई नहीं/ बाद में तय यह हुआ कि अपन रासायनिक तत्वों में हिस्सा बाँट कर लेते हैं जातिगत समीकरणों पर समाजवादी वैज्ञानिक काम करेंगे और धार्मिक तत्व वाले फ़ार्मूला पर भाजपाई/

इस बाँट बखेड़े में बेचारी कांग्रेस रह गई// उसके साथ समस्या यही है कि या तो उसके नेता दिवंगत हो चुके हैं या फ़िर अभी दूधपीते बच्चे हैं

जिस तरह से केमिकल लैब्स में एक तत्व को दूसरे से मिलाके अलग अलग कोम्बिनेशन बना के कुछ खोज परख की जाती है वैसे ही इन राजनीतिक प्रयोगशालाओ मे चलता है/

लालू जी ने माई (MY) समीकरण से खूब दिन सत्ता सुन्दरी का मन मोहे रखा तभी एक न्जिनीअर साब के हाथ कोई सिद्ध फ़ार्मूला लगा और उससे उन्होंने सत्ता की चाबी बना ली /

फ़िर कुछ दिन बाद एक नए रासायनिक तत्व की खोज हुई. बताया गया कि ये तत्व पृथ्वी पर मौज़ूद तो काफ़ी पहले से था मगर इसकी खोज अभी हुई है सो इस पर हमारा अधिकार बनता है इस तत्व का नाम है “अति पिछड़ा”/ इस अति पिछड़े की बात उठाई गई ताकि अगर कोई नई राजनीतिक दवा ईज़ाद हो तो उसका सबसे पहला उपयोग ये ययाति लोग करें/

अभी मुहल्ले में एक नई बहस है महादलित …मै तो सोचता था कि जार्गन्स (शब्द जाल) का निर्माण सिर्फ़ एन जी ओ वाले या कॊफ़ीरूम बुद्धिजीवी करते हैं मगर राजनेता भी इस मामले में आगे हैं.

हुआ कुछ यूँ कि दलितों में जो अति दलित हैं उनकी पहचान के लिए एक आयोग बनेगा.. प्रदेश का अन्दाज़ा तो लग ही गया होगा आपको/ नहीं लगा? धत्तेरे की इतना बड़ा विस्तार प्रसंग लिखने का क्या फ़ायदा? बिहार के अलावा यह योग्यता कहाँ के वैज्ञानिकों में है/ बिहार में यह बनेगा… अब महादलित आयोग बनेगा इसकी रिपोर्ट आनेपर बिहार में जादू की छड़ी घूमने वाली है..जिस के घूमते ही दलितों की सारी समस्याएं छूमन्तर हो जाएंगी…..उस छड़ी को बनाने के लिए कॉन्ट्रेक्ट किसको दिया जाए इसपे मोदी जी और नितीश जी के बीच सहमति नहीं बन पाइ है/

इसके बाद एक फ़ायदा ये भी हो सकता है कि महादलित नामका नया मिश्रण किसी बुढ़ातेराजनेता के लिए संजीवनी साबित हो जाए या फ़िर उसकी पूरी पार्टी वाले उस पर मौज करें/ हालँकि अन्तिम रिपोर्ट आने तक इस बारे में कुछ नही कहा जा सकता/

दलितों के नाम पर राजनेताओं की पूरी की पूरी पीढ़ियाँ मौज कर के चल दीं  और दलित आज भी ओख से पानी पीता है और घोड़ी पर चढ़े तो जूते खाने का भागी बनता है/ चलो देखते हैं ये महादलित में बाँटने की लीला भी देखते हैं/

 

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महान कवि भूषण

अप्रैल 26, 2007 at 8:44 पूर्वाह्न (पुनर्पठन)

पुनर्पठन के तहत आज याद करते हैं हम रीतिकाल के महान कवि भूषण को जिनके बारे में प्रसिद्ध है कि उनकी पालकी उठाते वक़्त शिवाजी और छत्रसाल ने भी काँधा लगा दिया था/

इनका समय रहा है सत्रहवीं सदी जब सारे मुल्क के राजा नवाब और सामन्त अय्याशियों में मदमस्त हुए पड़े थे/रीतिकाल में जब सारा मुल्क़ का साहित्य संसार श्रृंगार रस में गोते लगा रहा था उसी वक़्त एक शायर ऐसा भी हुआ जिसने राजे-रजवाड़ों को उनका धर्म और कर्तव्य की याद दिलाई/

स्वाभाविक है कि यह याद दिलाना बहुत कम लोगों को ही पसन्द आया और इसी के चलते भूषण अपने मूल स्थान जो शायद दक्षिण उत्तरप्रदेश में कहीं था वहाँ से महाराष्ट्र चले आए/ यहाँ शाह शिवाजी की कीर्तिगीत रचने के साथ ही उन्होंने कभी उनको कर्तव्य की याद दिलाने में कोताही भी नहीं बरती/

भूषण के छप्पय और छन्द वीर रस से भरे हुए हैं/ उन्होंने तत्कालीन माहौल और साहित्यिक परिस्थितियों के विपरीत श्रृंगार रस का वर्णन कम ही किया है/ उनकी कविताओं में तलवार की चमक और बन्दूक की धमक है पायल की छनक नहीं/भूषण कुछ समय वीर बुन्देला छत्रसाल के दरबार में भी रहे थे और छत्रसाल की प्रशन्सा में भी उन्होने काव्य रचना की थीं/

प्रस्तुत हैं कुछ रचनाएंस्मृति पर आधारित होने की वजह से कहीं कोई त्रुटि भी हो सकती है, कृपया ध्यान दिलाने का कष्ट करें/

“इन्द्र जिमि जम्भ पर, बाड़व सुअम्भ पर, रावण सदम्भ पर रघुकुल राज है

पौन वारिवाह पर, शम्भु रतिनाह पर, ज्यों सहस्त्रबाहु पर राम द्विजराज है

दावा द्रुम दण्ड पर, गरुड़ वितुण्ड पर, मृगन के झुण्ड पर जैसे मृगराज है

कान्ह जिमि कन्स पर, तेज तम अन्स पर, त्यों मलेच्छ वन्स पर सेर सिवराज है”

मायने इस रचना के कुछ इस तरह हैं कि जैसे इन्द्र वृत्रासुर नामक राक्षस के लिए, समुद्र के लिए बाड़व अग्नि, दम्भी रावण पर राम, बादलों पर पवन, शंकर कामदेव पर, सहस्रबाहु नामके राजा पर महर्षि परशुराम, जंगल की आग वृक्षों पर, पक्षियों पर गरुड़, पशुसमूह पर शेर, कंस पर कृष्ण और अँधेरे पर रोशनी भारी होती है वैसे ही म्लेच्छ (औरंगज़ेब) के लिए शेर शिवाजी भारी हैं/

छ्न्द की दृष्टि से इस में मालोपमा अलंकार का प्रयोग है/ यानि की कई सारी तुलनाएं एक व्यक्ति के लिए की जाना/ 

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