अप्रैल 17, 2011 at 10:58 पूर्वाह्न (कुछ इधर की कुछ उधर की)

विषय सोचने से नहीं बंधती कविता
विषय सोचकर लिखे जाते होंगे निबंध या कुछ और
बस शुरू करते हैं कुछ शब्दों के समयोज वियोजन  से
शब्द जो उड़े चले आते हैं टिड्डियों की तरह
खुद ब खुद रास्ता खरादते अपना
बेपंख बेबात बहे आते हैं जो
सुगंध फैला देते हैं चारों और
और हम देखते हैं अनंत आभा शब्दों की
जैसा वो चाहें वैसा
बनती हैं अनगिन आकृतियाँ
जिनका रहस्य रहस्य ही रह जाता है
धीरे धीरे धीरे जमते हैं शब्द
तलछट की गाद की तरह और बनती हैं वे आकृतियाँ
जिन्हें लोग कह देते हैं यूँ ही अजाने में कविता

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अप्रैल 17, 2011 at 10:56 पूर्वाह्न (कुछ इधर की कुछ उधर की)

जलती है ट्यूब लाईट
सफ़ेद और सफ़ेद
फिर भक से बुझ जाती है
दिया ठहरता ठहरता जलता है
जैसे जंगल में लगी हो आग
और फिर पानी पड़ गया हो ऊपर ऊपर
नाचती है कठपुतली धमधम रुक रुक धमधम
दूर नगड़िया की चोट पर कर रही बेडनी नाच
मैया के मेले में मानता पूरी करने
गंध शब्द सब उड़ उड़कर उड़ते हैं कहीं
किन्हीं कोनों से
मैं निर्वसन समाता हूँ इन शब्दों में
नाचते हैं आकर आकृति
कौंधती हैं रश्मियाँ

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